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________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् ९३१ ९३३ गाथा संख्या विषय ८६३,८६४ प्रलंब प्रासि के प्रकार। ८६५-८७१ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर वसतिवाले प्रदेश में प्रलंब आदि ग्रहण के प्रायश्चित्त। ८७२,८७३ कोट्टक क्या? प्रलंब ग्रहण के लिए जाते हुए चार पदों से सोलह भंगों की रचना। ८७४,८७५ सोलह भंगों में शुद्ध अशुद्ध का विवेक। ८७६ पुष्ट आलंबन में अशुद्ध भंग भी शुद्ध। ८७७-८८० सोलह भंगों में यथायोग्य प्रायश्चित्त का निरूपण। ८८१-८८४ कोट्टकादि में अकेले मुनि के जाने से होने वाली आत्मविराधना व उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ८८५-८८९ सहायक के भेद तथा इनके साथ जाने पर निष्पन्न प्रायश्चित्त। ८९० अरण्य तथा अन्यत्र ग्रहण की तरह तत्र ग्रहण में भी प्रायश्चित्त। ८९१ तत्रग्रहण के प्रकार तथा उनके भेद। ८९२-८९४ सपरिग्रह के तीन प्रकार तथा इनका स्वरूप। ८९५-९०३ प्रलंबयुक्त आराम के भद्र या प्रान्त स्वामी का मुनि के प्रति व्यवहार तथा उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ९०४,९०५ बिना आज्ञा प्रलंब ग्रहण करने पर मुनि की होने वाली प्रताड़ना और तद्जन्य प्रायश्चित्त। आराम के विविध स्वामी। ९०७ सचित्त प्रलंब के विषय में प्रक्षेपण, आरोहण और पतन ये द्वार पूर्ववत्। ९०८,९०९ सचित्त के प्रकार तथा हस्त प्राप्त प्रलंग को वृक्ष से तोड़ने से निष्पन्न नाना प्रायश्चित्त। ९१० काष्ठ या पत्थर फेंक कर प्रलंब गिराने से निष्पन्न प्रायश्चित्त। प्रक्षेपण से षट्कायविराधना। ९१४ प्रलंब के लिए प्रक्षेपण आदि करता हुआ मुनि षट्काय विराधक क्यों? ९१५ क्षेपण संबंधित दोष। वृक्ष पर आरोहण करने से उत्पन्न दोष व प्रायश्चित्त। ९१९,९२० प्रान्त प्रलंब स्वामी द्वारा मुनि के वस्त्रों का अपहरण तथा तद्जन्य दोष और प्रायश्चित्त। ९२१-९२३ प्रलंब स्वामी द्वारा पकड़ लिए जाने पर होने वाले दोष व उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त । गाथा संख्या विषय ९२४ आज्ञाभंग गुरुतर दोष कैसे? ९२५-९२७ निषिद्ध परिहार न करने वाले मुनि का संसार में सर्वस्व विनाश। इस विषयक राजा का दृष्टान्त। ९२८,९२९ अकार्य में प्रवृत्त कौन? ९३० प्रलंब सेवी मुनि असंयम से स्पृष्ट। प्रलंब सेवी ज्ञानी होते हुए भी अज्ञानी। ९३२ ज्ञान के अभाव में न दर्शन और न चारित्र। वनस्पति का आदि कौन? ९३४,९३५ बीजसेवी आत्मवधक कैसे? ९३६ प्रलंब ग्रहण से प्रायश्चित्त किसको? शिष्य का प्रश्न । आचार्य का समाधान। ९३७ सारणा रहित गण निस्सार। ९३८ गच्छ की सारणा से विकल गणी का परित्याग। ९३९ किस राज्य की प्रजा उच्छंखल? ९४० सात व्यसनों का कथन। ९४१,९४२ गच्छ की सारणा संबंधी चतुभंगी और उनमें शुद्ध अशुद्ध का विवेक। ९४३ लौकिक और लोकोत्तर सार का कथन। ९४४ कार्य सिद्ध न होने के कारण। ९४५-९४९ उपाय से कार्य की संपत्ति और अनुपाय से कार्य की विपत्ति का निदर्शन पूर्वक विवेचन। ९५० काल की हीनता या अधिकता से कार्य करने वाला गीतार्थ भी दोषी। कालकारी गीतार्थ के विशिष्ट गुण। ९५२,९५३ गीतार्थ प्रतिसेवना क्यों करता है? तद्विषयक उसका चिंतन। ९५४ प्रतिसेवना सकारण या निष्कारण कैसे? ९५५ वस्तु और अवस्तु कौन? वस्तुभूत ही प्रतिसेवना के अधिकारी। ९५६ शक्ति के दो प्रकार तथा 'परिरय' का अर्थ। ९५७ इहलोक फल और परलोक फल का स्वरूप। ९५८ ओजा कौन व उसके प्रकार। ९५९ गीतार्थ महावैद्य की तरह श्लाघ्य। ९६०,९६१ क्या गीतार्थ तीर्थंकर और केवली के तुल्य होता है? शिष्य का प्रश्न और आचार्य का समाधान। ९६२ गीतार्थ के ज्ञान की आंशिक तुलना केवली से। श्रुतकेवली तथा सर्वज्ञ प्रज्ञप्ति-प्रज्ञापना में तुल्य। ९०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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