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________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ऋषिभाषित में जिन ऐतिहासिक ऋषियों का उल्लेख मिलता है उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो महावीर और बुद्ध से परवर्ती हो। जिनवज्जीपुत्त का उल्लेख ऋषिभाषित में हैं वे भी पालित्रिपिटक के आधार पर बुद्ध के लघुसमवयस्क ही सिद्ध होते हैं। इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित एक प्राचीन ग्रंथ है। अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख और उनके उपदेशों की उपनिषदों में वर्णित उपदेशों से समानता भी यही सिद्ध करती है कि यह प्राकृत ग्रंथ औपनिषदिक साहित्य का समसामयिक है या उससे किचित् ही परवर्ती है। डॉ सागर मल जैन ने इसके रचनाकाल की पूर्व सीमा ई. पूर्व पाँचवीं शती और अंतिम सीमा ईसवी पूर्व 3री शताब्दी के मध्य निश्चित की है। वे लिखते हैं कि "मेरी दृष्टि में इसके रचनाकाल की पूर्व सीमा ईसा पूर्व पाँचवीं शती और अन्तिम सीमा ईसा पूर्व तीसरी शती के बीच ही है। मुझे अन्तः और बाह्य साक्ष्यों में कोई भी ऐसा संकेत नहीं मिला जो इसे इस कालावधि से परवर्ती सिद्ध करें।"१२ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित एक प्राचीनतम ग्रन्थ है और वह हमारे सामने संपूर्ण भारतीय ऋषि परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। अतः जो लोग इसे मात्र जैन परंपरा का एक ग्रंथ मानकर उपेक्षित कर देते हैं वे एक बहुत बड़ी गलती करते हैं। वस्तुतः यह सम्प्रदाय निरपेक्ष और संपूर्ण भारत की ऋषि परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका ऐतिहासिक दृष्टि से भी अपना महत्त्व है। क्योकि इसमें अनेक ऐसे ऋषियों के और उनकी मान्यताओं के संदर्भ प्रस्तुत हैं जो अन्यत्र कहीं भी हमें उपलब्ध नहीं होते हैं। अतः दर्शन और धर्म के इतिहास और भारत की सहिष्णुतावादी उदार धार्मिक दृष्टि से इसके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है। ऋषिभाषित की विषयवस्तु जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं-ऋषिभाषित में ब्राह्मण, जैन, बौद्ध और अन्य श्रमण परंपराओं के 45 ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। जहाँ तक इनके उपदेशों की विषयवस्तु का प्रश्न है, उनमें मुख्यरूप से तत्त्व-दर्शन एवं आचार संबंधी विवेचना पाया जाता है। आचार मार्ग संबंधी उपदेश ही ऋषिभाषित का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। जहाँ तक ऋषिभाषित के तत्त्वमीमांसा संबंधी विवेचनों का प्रश्न है इसमें भौतिकवादी और अध्यात्मवादी दोनों ही दृष्टिकोणों का प्रस्तुतिकरण पाया जाता है। तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में प्रतिपादित विचार मुख्यरूप से चार्वाक, जैन और बौद्ध दार्शनिक परंपराओं से संबंधित हैं। यद्यपि इसमें अनेक ब्राह्मण ऋषियों के उपदेश भी संकलित हैं। उनके मुख्य विवेच्य विषय आचारमीमांसा या सदाचार के उपदेश ही हैं। सर्वप्रथम हम ऋषिभाषित में वर्णित ऋषियों के नामों का उल्लेख करेंगे और उनकी परंपराओं का निश्चय करने का प्रयत्न करेंगे। 12. 'इसिभासियाई' भूमिका-डॉ. सागरमल जैन, पृ. 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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