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________________ लन की पुस्तिका से मिथ्या सिद्ध हो जाता है और पंचाल देशोद्धारक न्यायाम्भोनिधि स्व. आराध्यपाद आ० भ. श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज के नाम से जो लिखा है वह गप्पदीपिका में छपे हुए प्रश्नों से असत्य सिद्ध हो जाता है । उस तरह उक्त दोनों आधारों से राधनपुर का लेख झूठा सिद्ध होता है। पू. पंन्यासजी म. श्री भद्रंकरविजयजी म. जैन विद्याशाला (पू.आ.म. श्री वि.भद्रंकर सू. म. बापजी म. के) अहमदाबाद __आसोज वदी ७ राधनपुर के भाइयों द्वारा छपाया हुआ पर्चा पढ़कर दुःख हुआ। आजकल जैन संघ में दिन-प्रतिदिन अराजकता बढ़ रही . है । इसलिए किसी को कोई रोक नहीं सकता। उक्त रीति से सम्मेलन के ठहराव के नाम से सत्य से सर्वथा दूर पर्चा छपवाने का दुःसाहस क्यों करना पड़ा, यह समझ में नहीं आता । पिछले कितनेक वर्षों से संघ के उद्धार और श्रावकों के उद्धार के नाम से शुरु हुई प्रवृत्तियों से संघ या श्रावकों का थोड़ा भी हित नहीं हुआ। विष खाकर जीने की इच्छा कभी सफल नहीं होती । देव-गुरु आदि की सेवा-भक्ति करके सुख पाया जा सकता है । देवद्रव्य का भक्षण करने से कभी किसी का उद्धार नहीं हुआ। यदि ऐसा हो तो वीतराग के वचन मिथ्या हो जावे। राधनपुर के अमुक वर्ग का देवद्रव्य । स्वप्न द्रव्य ) को साधारणा में ले जाने का आग्रह अमुक वर्षों से चालू हुआ है और अधिक समूह का विरोध होने पर भी वह आग्रह छूटता नहीं है । 102 ] [ स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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