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________________ वैराग्य भवनो हो सदा, नित मोक्षनी हो झंखना, निज आत्ममां नित थिर रहुं, आवे भले सुख दुःख घणा, मुज सप्तधातुमां हो अविहड राग जिनशासन तणो, मां सदा मळजो मने, संगाथ आ जिनधर्मनो. (२४) नाथ अंतरथी कहुं, मुज विनती स्वीकारजे मुज जीवन संध्यानी क्षणे, मारा ह्यदयमां आवजे, वळी आवता भवमां प्रभु जिनधर्म हैये थापजे, मुक्ति सुधी मुज आत्मगुण रश्मिनुं हीर वधारजे (२५) हे नाथ निर्मळता तणुं वरदान.... आ जगतना कैं भूपना पण रूप ज्यां पाछा पडे, देवो तणा अधिराजना तनुतेज ज्यां झांखा पडे, रूपयुक्त रागे मुक्त प्रभुवर ! एक विनती सांभळो, हे नाथ ! निर्मळता तणुं वरदान मुजने आपजो. (१) सौंदर्यने प्रसरांवता परमाणुओ छे आ जगे, जाणे जगतमां तेटला प्रभुदेशमां जे झगमगे, प्रभु ! आप सम को रूप नहीं मुज रूपरतिने टाळजो, हे नाथ ! निर्मळता तणुं वरदान मुजने आपजो. (२) तीर्थो तणी पर्वो तणी लज्जा प्रभु में धरी नथी, शुभयोगने स्पशर्या छतां शुभताने मनमां भरी नथी, केवळक्रियाओं करी रह्यो हवे तेहनुं फळ आपजो, हे नाथ ! निर्मळता तणुं वरदान मुजने आपजो. (३) ५
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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