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________________ चरम तीर्थंकर अंतिम भगवान होनेवाले हैं तथा भविष्य में वासुदेव तथा चक्रवर्ति भी होने वाले हैं । इस प्रकार कितने गजब का पुण्योपार्जन किया। यह नयसार अन्य कोई नहीं, बल्कि भगवान महावीर का जीव था। भावि के अंतिम भव में भगवान महावीर बना, परन्तु प्रथम भव में नवकार से ही इसका बीजवपन हुआ था। बीजारोपण हुआ था तो एक दिन फलित हुआ न? जीवन तो धन्य बनाया, साथ ही समस्त जगत के जीवों को भी धन्य धन्य कर दिया। वे स्वयं तो तीरे ही, पर अनेक भव्यात्माओंको भी तीरा गए। यह था चमत्कार नवकार का। आत्मा नवकार के बीज से सम्यक्त्वादि प्राप्त कर अंत में तीर्थंकर बनकर मोक्षगामी बनी। इससे अधिक ऊँचा अन्य चमत्कार नमस्कार महामंत्र का क्या हो सकता है? इस अर्थ में अपने जैसे जीव भी नमस्कार की साधना कर सकें - इस दृष्टि से यह एक उच्च कक्षा का आदर्श अपने समक्ष प्रस्तुत किया गया है। . नवकार की त्रैकालिक साधना - . साधना अजर-अमर होती है। साधना न मरती है, न इसका अंत आता है, बल्कि इससे साधक साध्य को प्राप्त कर लेता है। साधना साधक को पूर्ण बना देती है। गाडी व्यक्ति को बम्बई पहुँचा देती है, फिर गाडी तो लौटती ही है। गाडी तो नित्य दौडती है, परन्तु साधक व्यक्ति अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है - साध्य को प्राप्त कर लेता है। साध्य प्राप्ति के बाद गाडी तो छोड देनी होती है। साधना नित्य शाश्वत है, अतः यह सभी जीवों के लिये है। नयसार महावीर बन कर मोक्ष में चले गए। उन्होंने साध्य को प्राप्त कर लिया, परन्तु उनकी साधना का मार्ग तो आज भी है । अतः साधना का मार्ग अजर-अमर सदाकाल का, शाश्वत है। हमें साधना से मतलब है। साध्य के आदर्श का तो अवलम्बन लेना ही है, फिर हमारी साधना भी हमें साध्य तक पहुँचा देगी। साधना पूर्ण तभी बनती है, जब साधक को वह साध्य की प्राप्ति करवा दे । साध्य को प्राप्त करना अर्थात् साधक का अपूर्ण में से पूर्ण बनना, अल्पज्ञ में से सर्वज्ञ बनना है। अतएव साधना का मार्ग जगत में तीनों काल में शाश्वत रहता है। महावीर तो एक साधक थे। उन्होंने भी शाश्वत साधना जो अनेकों के माध्यम से चली आ रही थी, वह साधना की और एक दिन साधना की पूर्णाहुति स्वरुप चरम साध्य को प्राप्त करने में वे सफल हो गए, परन्तु जिस साध्य की भगवान महावीर ने प्राप्ति की, उसकी साधना को भगवान महावीर 39
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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