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________________ हैं । तो भी स्पष्ट नहीं होता। अतः उत्तर को दृष्टान्त से देते हुए कहते हैं किमानों एक द्वीप के चारों तरफ समुद्र हो, उसके बाद पुनः द्वीप पुनः समुद्र पुनः द्वीप इस तरह असंख्या द्वीप-समुद्र हो । उसमें भी एक के बाद क्रमशः दूसरा दुगुना हो । तो अन्तिम असंख्यातवां समुद्र कितना बड़ा-लम्बा-चौड़ा होगा ? वह भी शायद असंख्य योजन परिमित विस्तार का होगा। उस समुद्र के किनारे एक चिड़िया पानी पीने आई हो और उस चिड़िया ने जितना पानी पिया है उतने ही सिर्फ तेरे भव कहे हैं और सारे समुद्र का जितना पानी पीना शेष है उतने तेरे भव कहने शेष है। सर्वज्ञ भगवान के उत्तर के इस काल्पनिक रूपक से आप कल्पना लगाइये कि एक-एक हजार वर्ष के आयुष्यवाले हजार केवलज्ञानियों ने अविरत इतने भव कहने के बाद भी कितने थोड़े भव कहे हैं ? कितने थोड़े अल्प भवों की संख्या का भावार्थ दिखाने के लिए-"चिडिया ने जितना पानी पिया है उतने तेरे भव कहे हैं।" ये शब्द प्रयुक्त किये हैं । चिडिया का शरीर कितना है ? वह पी-पीकर भी कितना पानी पी सकती है ? मनुष्य के जितना तो नहीं । सिर्फ थोड़े से भव कहे है। तथा "आगे अभी और कितनी भव संख्या कहनी शेष है ? यह दिखाने के लिए रूपक के रूप में-"जितना समुद्र का पानी पीना शेष है उतने भव कहने शेष है" ये शब्द प्रयोग में लाए हैं । अब आप सोचिए-कितने भव इस जीव ने भव संसार में किये होंगे ? यही हमारे सबके विषय में है। हमारी सभी की भूतकाल के भवों की यही दशा है । इतनी लम्बी संख्या है। अरे जो संख्या में कभी भी समा नहीं सकती। उसमें भी यह तो भूतकाल के भवों की संख्या के विषय की बात है। भविष्य के भवों की संख्या का क्या हाल है ? वह और दूसरे दृष्टांत से देखें। भावि भव संख्या एक बार की बात है दो भाईयों ने किसी सर्वज्ञानी भगवान को अपनी भव संख्या के बारे में पूछा-हे प्रभु ! अब संसार से मुक्त होकर मोक्ष में जाने लिए हमारे कितने भव (जन्म) शेष रहे हैं ? कितने भवों बाद हम मोक्ष में जाएंगे ? अब हमें संसार में कितने भव तक भटकना है ? केवलज्ञानी सर्वज्ञ प्रभु ने उत्तर देते हुए फरमाया कि-छोटा भाई सात भव में मुक्त होगा और बड़ा भाई अभी असंख्य भव करेगा। यह सुनकर दोनों भाई चले गए। अपने मन में सोचने लगे अरे बाप रे ! मुझे अभी पौर असंख्य जन्म इस संसार में करने पड़ेंगे ? अरेरे ! क्या करू ? ऐसा सोचते हुए बड़े भाई ने मन से संकल्प किया कि अब जिंदगी में किसी भी प्रकार का पाप नहीं करूंगा । तप-तपश्चर्या शुरू की धर्माराधना शुरू करदी । तन-मन से बहुत ही कड़ी तपश्चर्या शुरू की । असंख्य भव अभी मुझे और करने पडेंगे...अरेरे ! कर्म की गति न्यारी ३७
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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