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________________ ६७४ ... श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र कर रखी हो, उसके बारे में उनकी अनुमति लिए बिना उस चीज का ग्रहण या सेवन करना। जिस राष्ट्र में साधु विचरण कर रहा है, या वहाँ से नये किसी राष्ट्र में विचरण करना चाहता है, तो वहाँ की सरकार या शासक की सहमति के वगैर विचरण करना राजा-अदत्त है। गृहपति-अदत्त का अर्थ तो स्पष्ट ही है । सहधर्मी अदत्त भी स्पष्ट है कि जो अपने समानधर्मी साधु हों, उनकी भी किसी चीज को अपने उपयोग या सेवन के लिए अनुमति के वगैर ले लेना या सेवन करना । किसी साधु के शिष्य को बहका कर उसकी अनुमति या सहमति के वगैर अपना शिष्य बना लेना भी सहधर्मी अदत्त है। ____ मतलब यह है कि इन सब प्रकार के अदत्तों से मन-वचन-काया से कृत, कारित अनुमोदनरूप से सर्वथा विरत होना अदत्ता-दान विरमण है,। यद्यपि दत्तानुज्ञात में,अदत्तादान विरमण के सभी अर्थ समाविष्ट हो जाते हैं । तथापि यहाँ मूलपाठ में 'दत्तानुज्ञात' शब्द ही प्रयुक्त किया है, इसलिए इसमें कुछ विशेष अर्थ शास्त्रकार ने ध्वनित किया है । इसमें दो शब्द हैं-दत्त और अनुज्ञात । दत्त शब्द में गृहस्थ के द्वारा भक्तिभावपूर्वक दिये गए उन पदार्थों का समावेश हो जाता है, जिनका सेवन या उपभोग एक ही बार किया जा सके , जैसेरोटी, साग, मिठाई, दूध-दही,घी आदि । और अनुज्ञात शब्द उन पदार्थों के लिए ग्रहण किया गया है, जिनका उपयोग बार-बार किया जा सकता है, ऐसी चीजों के उपयोग करने की गृहस्थ द्वारा भक्तिपूर्वक अनुज्ञा या अनुमति दी गई हो, जैसे—पट्टा, चौकी, मकान आदि । मतलब यह है कि दाता के द्वारा दत्त और अनुज्ञात साधु जीवन के योग्य पदार्थों का ग्रहण या सेवन करना दत्तानुज्ञात संवर कहा जाता हैं। इसी अर्थ को शास्त्रकार ने स्पष्ट किया है-'जत्थ य गामागरनगर “पडियं पम्हुट्ठ विप्पणट्ठ न कप्पति कस्सइ कहेउवा ... जंपि य दविजातं" न कप्पति उग्गहमि अदिण्णंमि गिहिउ जे ....." अणुन्नविय गेण्हियध्वं ।' इन सब पंक्तियों का अर्थ पहले स्पष्ट किया जा चुका है। अस्तेय और अस्तेनक के अर्थ भी अचौर्य के समान ही हैं । अप्रीति रखने वाले से ग्रहण का निषेध क्यों ?—पहले यह बताया गया है कि साधु दत्त और अनुज्ञात वस्तुओं का ही ग्रहण या सेवन करे ; लेकिन आगे शास्त्रकार कहते हैं कि अप्रीति रखने वाले से तो दत्त और अनुज्ञात पदार्थ भी न ले और न उपभोग करे । प्रश्न होता है, ऐसा विधान क्यों? इसका समाधान यह है कि साधु प्रीति और श्रद्धा से दिये हुए रूखे-सूखे आहारादि को ही सर्वोत्तम मानते हैं। अवज्ञा और अप्रीति-पूर्वक दिये गए मिष्टान्न, दुग्धादि को तुच्छातितुच्छ समझते हैं ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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