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________________ आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर ६७३ हैं ?' चट से उत्तर में इस प्रकार कहे कि 'साधु तो क्षपणक तपस्वी ही होते हैं। इसी प्रकार वचन से उच्च आचारी या क्रियारुचि होने के बारे में किसी से पूछे जाने पर गोलमोल जवाब दे,जिससे असत्य भी साबित न हो और असली बात भी छिपा ली जाय , तो वहाँ भी वचनचौर्य है। इसी प्रकार वचन से दान, शील, तप आदि धर्मों या सुकृत्यों के बारे में निषेध करे, खण्डन करे, या 'इनमें क्या रखा है ?' इस प्रकार से उपेक्षापूर्वक बोले, या सिद्धान्त के विपरीत जानबूझ कर किसी बात की प्ररूपणा करे । यह सब शासनाधीश भगवान महावीर के सिद्धान्तों का अपलाप होने से वाक्चोरी माना जाता है । कृत और कारित वाकचोरी तो स्पष्ट ही है । कायिक चोरी तो संसार में प्रसिद्ध है। किसी की गिरी हुई, विस्मृत या खोई हुई या कहीं रखी हुई वस्तु को अपने कब्जे में करना, अपने अधिकार की बताना, या अपने उपयोग में ले लेना, दूसरों के लिखे हुए लेख-कविता या ग्रन्थ आदि तथा दूसरों के किये हुए कार्य या उपकार पर अपने नाम की छाप लगाना, किसी के द्वारा किये गए उपकार को भूल जाना, उसका नाम छिपाना भी कायिक चोरी ही है। इस प्रकार मन, वचन और काया से चोरी का सर्वथा त्याग करना अचौर्य है। अदत्तादान विरमण का अर्थ भी यही है कि किसी के अधिकार या स्वामित्व की चीज को उसके द्वारा स्वयं दिये बिना, स्वीकृति या अनुमति दिये बिना ग्रहण कर लेना या अपने उपयोग में ले लेना, अथवा अपने अधिकार या कब्जे में कर लेना ; अदत्तादान है और ऐसे अदत्तादान से मन, वचन, काया से विरत होना अदत्तादान विरमण है । शास्त्र में ऐसे अदत्त मुख्यतया ५ (पाँच) बताए हैं—देव-अदत्त, गुरु-अदत्त, राज-अदत्त, गृहपति-अदत्त, और सहधर्मी-अदत्त । देव से यहाँ देवाधिदेव अर्थ विवक्षित है। देवाधिदेव तीर्थंकरों की ओर से साधु के लिए ऐसा विधान है कि मिट्टी, कंकर, पत्थर, तिनका आदि चीजें जंगल में पड़ी हों; शौच या पेशाब-परिष्ठापन के लिए किसी की मालिकी से अज्ञात भूमि हो ; उक्त चीज़ों की साधुसाध्वी को जरूरत हो तो वहाँ शक्रेन्द्र देव की आज्ञा लेकर उसका ग्रहण या उपयोग करना चाहिए। किसी के मकान में साधु को निवास करना हो या कहीं बैठ कर उस जगह का, या उस जगह में पड़े हुए पट्टे, चौकी आदि साधू के योग्य चीजों का उसे उपयोग करना हो तो उसके मालिक की या मालिक ने जिसे वह जगह संभालने या देख रेख करने के लिए सौंप रखी हो, उसकी आज्ञा लेनी चाहिए । इसके विपरीत आचरण देवअदत्त है। गुरु-अदत्त से मतलब है, गुरु के दिये बिना या गुरु ने जिस चीज की मनाही ४३
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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