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________________ ६३२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र बारह भाषाएँ-बोलियों की दृष्टि से उस समय भारत में प्रचलित भाषाएं १२ मानी जाती थीं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-दुवालसविहा होइ भासाअर्थात्-भाषा १२ प्रकार की हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) प्राकृत, (२) संस्कृत, (३) मागधी, (४) पैशाची, (५) शौरसेनी, और (६) अपभ्रंश, ये ६ भाषाएँ । गद्य और पद्यभेद से कुल मिला कर १२ होती हैं । इनमें छठी जो अपभ्रंश भाषा है, भिन्नभिन्न देशों की अपेक्षा से उसके अनेक भेद हो जाते हैं। सोलह वचन–बोलते समय एकवचन आदि वचनों, स्त्री-पुरुष आदि तीन लिंगों, प्रत्यक्ष-परोक्ष आदि तीनों कालों का तथा अपनीतवचन और अध्यात्मवचन आदि का विवेक सत्यवादी को होना चाहिए । इसी हेतु से १६ प्रकार के वचनों का उल्लेख शास्त्रकार ने किया है-'वयणं पि य होइ सोलसविहं' अर्थात्- वचन भी १६ प्रकार का होता है । निम्नोक्त गाथा इस सम्बन्ध में प्रस्तुत की जा रही है "वयणतियं लिंगतियं कालतियं तह परोक्ख-पच्चक्खं । अवणीयाइ चउक्कं अज्झत्थं चेव सोलसमं ॥" अर्थात्- 'एकवचन, द्विवचन और बहुवचन, ये तीन वचन; स्त्रीलिंग, पुल्लिग और नपुसकलिंग, ये तीन लिंग; भूत,भविष्य और वर्तमान, ये तीन काल; प्रत्यक्ष तथा परोक्ष वचन;अपनीतादि वचनचतुष्टय, जैसे—(१) किसी में एकाध कोई गुण होने पर भी ज्यादा तादाद में अमुक दुर्गुण होने से कहना—यह दुःशील है,यह दुर्भाषी है, इस : प्रकार का कथन अपनीत वचन है,(२) एकाध गुण बता कर बाद में दुर्गुणों का उल्लेख ' करना,जैसे—यह रूपवान तो है,किन्तु दुःशील है, इस प्रकार का कथन उपनीत-अपनीत वचन है,(३) इसके ठीक विपरीत पहले दुर्गुण बता कर बाद में एकाध गुण बताना,जैसे'यह दुःशील है,परन्तु है रूपवान,ऐसा कथन अपनीत-उपनीत वचन है,(४) केवल गुण ही गुण का कथन करना, दुर्गुण का नहीं,जैसे—यह रूपवान और बुद्धिमान है,इस प्रकार का वचन उपनीतवचन है। तथा अभीष्ट अर्थ को छिपाना चाहने वाले व्यक्ति के मुख से सहसा वही सत्य निकल जाने वाला वचन अध्यात्मवचन है जैसे-'मैं दुःखित हं', अथवा आत्मा को लेकर अध्यात्मभावना से वचनयोजना करना, अध्यात्मवचन है। ये सब मिलकर १६ प्रकार के वचन हैं। सत्यादि के स्वरूप को जान कर भाषावचनादि के विचार के साथ इन सब वचनों को बोलने की भगवान की आज्ञा है । १ भाषा के सम्बन्ध में देखिए यह श्लोक प्राकृतसंस्कृतभाषा मागधपैशाचशौरसेनी च । पाठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ।। -संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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