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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५६७ मोक्ष को उपलब्ध कर लेगा। इसी की ओर शास्त्रकार इंगित कर रहे हैं—'मणसमितिजोगेण भावितो " अहिंसओ संजओ सुसाहू ।' वचनसमिति भावना का बिशिष्ट चिन्तन, प्रयोग और फल-अहिंसा महाव्रत को सुरक्षित रखने के लिए वचन के द्वारा होने वाली तमाम प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए तीसरी वचनसमितिभावना है, जिसके चिन्तन और प्रयोग की ओर शास्त्रकार संकेत करते हैं—'वतीते पावियाते पावकं न किंचि वि भासियव्वं'। इसका आशय यह है कि प्रवृत्ति के लिए मन के बाद वचन दूसरा साधन है । साधु को अहिंसा का पूर्णरूप से पालन करने के लिए वचन पर नियंत्रण रखना अनिवार्य है । उसे किसी अनिवार्य कारण के बिना तो बोलना ही नहीं चाहिए। अगर किसी को उपदेश, प्रेरणा, आदेश-निर्देश देना ही पड़े तो बड़ी सावधानी से हित, मित, पथ्य, सत्य और मृदु वचन बोले । परन्तु कई साधकों को अभिमानवश अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा अथवा दूसरों को नीचा दिखाने या बदनाम करने के लिए उनके दोष प्रगट करने की या कटु आलोचना या साम्प्रदायिक विद्वेषवश दूसरे सम्प्रदाय या सम्प्रदायभक्तों का खण्डन करने की आदत हो जाती है। बोलते समय जबान पर नियंत्रण न होने के कारण वे अपशब्द, गाली, कर्कश शब्द और तानों का भी प्रयोग कर बैठते हैं। कई बार वे अविवेकवश प्राणिघातजनक, पीड़ाजनक सावध वचन कह डालते हैं, जो सीधे हिंसाजनक होते हैं, स्वपर के लिए अकल्याणकारी होते हैं। अधिक डींगें हांकने वालों, व्यर्थ की उलजलूल बातें कह कर गाल बजाने वालों या वाचालों की वाणी की कोई कद्र नहीं होती, न किसी को उनके कथन पर प्रतीति होती है। इसी प्रकार मुह से जो वचन कहा जाता है, उस पर अमल न करने पर भी लोगों को उस पर अविश्वास हो जाता है। असत्यवचन भी एक तरह से भावहिंसा-जनक होता है। इसीलिए शास्त्रकार ऐसे अधर्मयुक्त, कर्कश, भयंकर तथा वध, बंध और संक्लेश पैदा करने वाले पापकारी वचन बोलने से सावधान रहने का निर्देश करते हैं कि जिन वचनों से धर्ममर्यादा नष्ट होती हो, जो परपीड़ाजनक हों, ऐसे पापमय वचनों का कदापि जरा-सा भी उच्चारण नहीं करना चाहिए । ___ इस प्रकार वचनसमितिभावना के अनुसार चिन्तन और प्रयोग करने के फलस्वरूप साधक को क्या लाभ होता है ? इसी बात को शास्त्रकार ध्वनित करते हैं—'वयसमितिजोगेण भावितो" भवति अंतरप्पा अहिंसओ संजओ सुसाहू।' तात्पर्य यह है कि वचनसमिति भावना के पूर्वोक्त चिन्तन और अभ्यास से साधक की अन्तरात्मा में शुद्ध सुसंस्कार जड़ जमा लेते हैं, जिसके कारण अहिंसा की यथार्थ आराधना करके वह संयमी सुसाधु मोक्ष सिद्धि पा लेता है। एषणासमितिभावना का चिन्तन, प्रयोग और फल-अहिंसामहाव्रत की
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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