SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 641
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र के संस्कार बद्धमूल हो जायेंगे और २१ शबलदोषों से रहित, शुभपरिणामयुक्त अखंड चारित्र की भावना से वह पूर्ण अहिंसक और सुसंयमी बन कर मोक्षपक्ष का उत्तम साधक बन जायगा। मनःसमिति भावना का विशिष्ट चिन्तन, प्रयोग और फल-अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा के लिए मन के द्वारा होने वाली तमाम प्रवृत्तियों पर नियंत्रण होना आवश्यक है। यह नियन्त्रण करती है-मनःसमिति भावना । प्राणी सबसे अधिक पापबन्ध मन के द्वारा करता है, सर्वप्रथम हिंसा का जन्म मन में ही होता है, बाह्यहिंसा तो बाद में होती है । मन इतना जबर्दस्त है कि अगर उसे साधा न जाय तो वह बेकाबू हो कर बड़े-बड़े साधकों को चारों खाने चित्त कर देता है। इसीलिए शास्त्रकार मन की प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए मनःसमितिभावना के चिन्तन और प्रयोग की ओर इशारा करते हैं—'मणेण पावएणं पावकं अहम्मियं न कयावि किचिवि झायव्वं । इसका तात्पर्य यह है कि मन बड़ा चंचल होता है, वह पापकार्य की ओर झुकते देर नहीं लगाता। इसलिए मन को पापी कह कर यह संकेत किया है कि 'मन पर कभी भरोसा मत करो। इसकी मलिनता ही सब पापों का उद्गम स्थान है।' इसलिए मन पर कड़ा पहरा रखो । ज्यों ही यह अधर्मयुक्त विचारों की ओर झुकने लगे, त्यों ही इसे रोको । क्रोध, मान, माया, लोभ, असत्य, असंयम आदि तथा मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या-आचरण ये अधर्म हैं। इन अधर्मों की ओर मन को जाने दिया तो यह क्रूर और कठोर हो जायगा ; वध, बंध, क्लेश-मरण, भय आदि । के विचार करके पापी बन जायगा । इसलिए इसमें कभी भी जरा-सा भी कर, कठोर और भयंकर विचार मत आने दो, न दूसरे प्राणियों को पीटने, सताने, बांधने और हैरान करने का विकल्प पैदा होने दो। क्योंकि ऐसे कुविचारों और दुःसंकल्पों से भयंकर अशुभ ज्ञानावरणीय, असातावेदनीय आदि कर्मों का तीव्र बन्ध हो जाता है, जिसका फल नरक आदि दुर्गति का भयानक दुःख है। इसलिए मन को स्वाध्याय, उत्तम ध्यान, परोपकार-चिन्तन या क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस उत्तम धर्मों के चिन्तन में लगाए रखो । उसे कभी बुरे विचारों के करने का मौका ही न दो। यही मनःसमितिभावना का चिन्तन और प्रयोग है। ऐसे उत्तम चिन्तन और प्रयोग के फलस्वरूप मन में बुरे विचार जड़ से उखड़ कर शुद्ध शुभ विचारों के संस्कार जड़ जमा लेंगे और ऐसे साधु की अन्तरात्मा शुद्ध, अखंडचारित्र की भावना से पूर्ण अहिंसक संयमी बन जायगी, वही सुसाधु उत्तम १ शबलदोषों की विशेष जानकारी के लिए देखो, दशाश्रुतस्कन्धसूत्र । —संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy