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________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान-आश्रव ३०७ महात्मा, (वीरवरनामधेज्जो) महावीर नाम के (जिणो उ) तीर्थकर वीतरागदेव ने, (आहेसु) कहा है (य) पुनः (अदिण्णादाणस्स) अदत्तादान के (एयं) इस (तं ततियं) पूर्वोक्त तीसरे (फलविवागं पि) फलविपाक को भी उन्हीं भगवान् ने कहा है। इस प्रकार यह अदत्तादान (हर-दह-मरण-भय-कलुस-तासण-परसंतिकभेज्जलोभमूलं) परधनहरण, दहन, मृत्यु, भय, मलिनता, त्रास, रौद्रध्यान-सहित लोभमूलक है, यानी ये सब इसकी जड़ें हैं। (एवं) इस प्रकार (जाव) यावत् (चिरपरिगतमणुगतं दुरंतं) चिरकाल से प्राप्त,अनादि परम्परा से पीछे लगा हुआ और दुःख से अन्त होने वाला है। इस प्रकार (ततियं अधम्मदारं समत्त) यह तीसरा अधर्म द्वार समाप्त हुआ। (तिबेमि ऐसा मैं कहता हूँ। मूलार्थ-वे कैदी वहीं मर जाते हैं; यद्यपि वे मरना नहीं चाहते; लेकिन पूर्वोक्त कठोर दंड के कारण उनकी वहीं अकाम (अकाल) मृत्यु हो जाती है । मरने पर अथवा मरणासन्न स्थिति में उनके पैरों में कस कर रस्सी बांध दी जाती है और उन्हें जेलखाने से बाहर खींच कर निकाला जाता है और गहरी खाई में फेंक दिया जाता है । वहाँ उनकी लाशों पर भेड़ियों, कुत्तों, गीदड़ों, सूअरों और वनबिलावों के झुंड के झुड टूट पड़ते हैं और उधर से संडासी के समान मुंह वाले पक्षियों की कतार आती है और उन सबके नाना प्रकार के सैकड़ों मुह उनके शरीर को नोच-नोच कर टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। कई लाशों का बाज और गीध सफाया कर देते हैं। कई अपराधियों के शरीर में कीड पड जाते हैं, जिससे उनका सारा शरीर सड़ जाता है। उनकी इस प्रकार की कूमौत से संतुष्ट जन निम्नोक्त अशुभ उद्गार निकालते हैं—'अच्छा किया, बहुत ठीक हुआ; जो यह पापी मर गया।' इस प्रकार कई उन पर वचनों से ताने कसते हैं और प्रसन्न हो कर उनकी लाशों को पीटते हैं अथवा उनके विषय में निन्दात्मक मौखिक ढिंढोरा पीटते हैं। उन कुलांगारों को मरने के बाद दूसरों के द्वारा ही नहीं, अपने स्वजनों द्वारा भी इस प्रकार धिक्कारा और लज्जित किया जाता है । अथवा मरने के बाद भी दीर्घकाल तक उनके गांव के ही नहीं, परिवार के लोगों को भी लज्जित होना पड़ता है । __ मरने के बाद परलोक में पहुँच जाने पर भी वे चोर अशुभ व असातावेदनीय कर्म के उदय से ऐसे बुरे नरक में जा कर उत्पन्न होते हैं, जहाँ जलते अंगारों के समान तेज गर्मी है, और अत्यधिक ठंड है; इस अवस्था में वे निरन्तर सैकड़ों दुःखों से घिरे रहते हैं।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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