SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र जायपसुभूया) जन्मजात अज्ञानी पशु के समान जड़ता के प्रतिनिधि ( अवियत्ता) अप्रतीति पैदा करने वाले, (निच्चं नीयकम्मोपजीविणो ) हमेशा नीच कर्मों से अपनी जीविका चलाने वाले (लोयकुच्छ णिज्जा) लोक में निन्दनीय, (मोघमणोरहा) विफलमनोरथ वाले, (निरासबहुला ) अत्यन्त निराशा से युक्त, (आसापास पडिबद्धपाणा ) उनके प्राण अनेक आशाओं के पाश से बंधे रहते हैं (य) और (लोयसारे) लोक में सारभूत (अत्थोपायण - कामसोक्खे) अर्थोपार्जन तथा काम भोगों के सुख में (सुठु उज्जमंता विय) भलीभांति उद्यम करने पर भी ( अफलवंतका) असफल ( होंति) होते हैं । ( तद्दिवसुज्जुत्तकम्म कयदुक्खसंठवियसिथपंडसंचया) जिस-जिस दिन वे उद्यम करते हैं, उस उस दिन बहुत काम करने और कष्ट सहने पर भी वे मुश्किल से सत्त के पिंड का ही संचय कर पाते हैं अथवा अनाज के कणों का समूह कठिनाई से संग्रह कर पाते हैं ( पक्खीणदव्वसारा) उनका सारभूत द्रव्य नष्ट हो जाता है, (निच्चं अधुवधणधण्णको सपरिभोगवज्जिया) अस्थिर धन, धान्य और कोष के परिभोग से वे हमेशा ही वंचित रहते हैं, ( रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा ) शब्दरूपादि काम और गन्धरसस्पर्शरूप भोग के एक बार या बारबार सेवन के तमाम सुखों से वे वंचित ही रहते हैं, बेचारे ( परसिरिभोगोवभोग- निस्साण-मग्गणपरायणा ) दूसरों की लक्ष्मी के भोग-उपभोग को अपने अधीन करने की फिराक में लगे हुए वे ( वरागा ) बेचारे ( अकामिका) नाहक ही, बिना मतलब के, नहीं चाहते हुए भी, ( दुक्खं विर्णेति ) दुःख ही पाते हैं, (णेव सुहं णेव निव्वुति) वे न तो सुख पाते हैं और न शान्तिमानसिक स्वस्थता ( उवलभंति) पाते हैं । ( जे परस्स दव्वाहि अविरया) सच है, जो दूसरों के द्रव्यों के प्रति विरत नहीं हुए; वे, (अच्चतविपुलदुक्खसयसंपलित्ता) वे अत्यन्त मात्रा में सैकड़ों दुःखों से संतप्त होते रहते हैं । ३०६ ( एसो ) यह, पूर्वोक्त ( अदिष्णादाणस्स) चोरी का ( फलविवागो) फलविपाक - उदय में आया हुआ कर्मफल है, जो ( इहलोइयो) इस लोकसम्बधी है, ( पारलोइओ) परलोक-सम्बन्धी भी है, (अप्पसुहो बहुदुक्खो ) अल्पसुख और अत्यन्तदुःख का कारण है, (महब्भओ ) यह महाभयानक है, ( बहुरयप्पगाढ़ो) बहुत गाढ़ कर्मरूपी रज वाला है, (दारुणो) घोर है, ( कक्कसो) कठोर है, (असाओ ) दुःखमय है, ( वाससहस्सेहि मुच्चति) हजारों वर्षों में जा कर छूटता है । ( न य अवेदयित्ता मोक्खो अस्थि ) इसे भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं होता । ( इति एवं ) इस प्रकार ( णायकुलनंदणो ) ज्ञातकुल में उत्पन्न हुए, (महप्पा )
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy