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________________ * ३६ * * पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * जिन-शासन में ज्ञान कहा जाता है अथवा जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, विषयवासनाओं की ओर जाते हुए मन का निरोध होता है। परिणामस्वरूप आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिन-शासन में ज्ञान कहा है। ऐसे ज्ञाम को धारण करने वाले ज्ञानी हैं। अवधिज्ञान को जिन्होंने धारण किया वह अवधिज्ञानी जिन कहलाते हैं। (२) मनःपर्यवज्ञानी जिन-जिस ज्ञान के द्वारा दूसरे के मन की पर्याय जानी जाये, उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं अथवा अढाई द्वीप और समुद्रों में रहने वाले समनस्क जीवों के मनोगत भावों को प्रत्यक्ष करने वाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान मुनियों को होता है, मुनियों में भी जो अप्रमादी हो, सम्यक् प्रकार से संयम का पालन करते हैं और जो चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर चुके हों। जिन्हें मनःपर्यवज्ञान हो गया है। ऐसे मुनि' अढाई द्वीप, जम्बू द्वीप, धातकीखण्ड, अर्ध-पुष्कर द्वीप, आधे में पर्वत, आधे में मनुष्य, समस्त संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियों के मनोगत भाव जानने वाले हैं। किसी जिज्ञासु ने प्रश्न कर दिया-“अढाई द्वीप की लम्बाई-चौड़ाई कितनी है?" उत्तर-“एक लाख योजन का जम्बू द्वीप है, जम्बू द्वीप के चारों ओर दो लाख योजन का लवण समुद्र है लवण समुद्र के चारों ओर चार लाख योजन का धातकीखण्ड है, धातकीखण्ड के चारों तरफ आठ लाख योज़न का कालोदधि समुद्र है, कालोदधि समुद्र के चारों ओर सोलह लाख योजन का पुष्कर द्वीप है। पैंतालीस लाख योजन का अढाई द्वीप है। मनःपर्यवज्ञानी इतने बड़े क्षेत्र में रहे प्राणियों के मनोगत भावों को जान लेते हैं, उन्हें मनःपर्यवंज्ञानी जिन कहते हैं।" (३) केवलज्ञानी जिन-आवरणों के पूर्णतया हट जाने पर त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों को पर्यायों सहित जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहा जाता है। रूपी और अरूपी, अन्दर और बाहर, दूर और समीप, अणु तथा महान् सभी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों के सभी रूप इस ज्ञान के समक्ष 'करामलकवत्' उपस्थित हो जाते हैं। यह ज्ञान प्रतिपूर्ण है एवं अप्रतिपाती होता है, अर्थात् एक बार प्राप्त हो जाने पर फिर कभी नष्ट नहीं होता, अतः यह शाश्वत ज्ञान है। केवल का अर्थ है-सम्पूर्ण। अतएव जो सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभाव को जाने, वह केवलज्ञान है अथवा केवल का अर्थ है-शुद्ध। अतएव जो ज्ञानावरणीय कर्ममल के सर्वथा क्षय से आत्मा को उत्पन्न हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं अर्थात् केवल का अर्थ है-असहाय, निरपेक्ष। अतएव जिसके रहते अन्य कोई ज्ञान सहायक न रहे, उसे केवलज्ञान कहते हैं। साधारणतया जो भूत, भविष्यत् और वर्तमान की समस्त बातों को जानने में समर्थ हैं, वे केवलज्ञानी जिन कहलाते हैं। जिन शब्द की बुद्धि के अनुसार व्याख्या हम पीछे कर आये हैं। अब इन्द्र शब्द की व्याख्या करनी है। •
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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