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________________ प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा ३५ * हैं। बेहतर तो यही है, कमरे की रोजाना सफाई करनी चाहिए, नहीं तो कमरे में कचरा इकट्ठा हो जायेगा । आत्मारूपी कमरे की भी सफाई व्रत, नियम, सामायिक, संवर के द्वारा करनी चाहिए । इसीलिए कहा है कि जिन्होंने बाह्य एवं आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पा ली है, वे जिन कहलाते हैं । जिन का स्वरूप जिन - वीतराग की तरह जिनकी चर्या हो वे भी जिन या जिन के समान कहलाते हैं। जिन के भेद - जिन कितने प्रकार के होते हैं ? जिन तीन प्रकार के होते हैं - अवधिज्ञानी जिन, मनः पर्यवज्ञानी जिन और केवलज्ञानी जिन । 'स्थानांगसूत्र' में कहा है “तओ जिणा पण्णत्ता ओहिनाण जिणे, मणपज्जवनाण जिणे । केवलनाण जिणे ।” - स्था. ३ - अवधिज्ञान के धारक भावितात्मा अणगार अवधिज्ञानी जिन होते हैं। मनः पर्यवज्ञानी जिन तथा चार घातिकर्मों का नाश कर वीतराग दशा प्राप्त केवलज्ञानी जिन । (१) अवधिज्ञानी जिन-अवधि का अर्थ है - मर्यादा । अतएव जो मर्यादित अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान है, वह अवधिज्ञान है अथवा द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के उपकरण के बिना केवल अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान आत्मा से, रूपी पुद्गल द्रव्य को जानना अवधिज्ञान है । अवधि का अर्थ है - मर्यादा । ज्ञान का अर्थ क्या है ? इसके लिए सूत्रकार कह रहे हैं ‘“तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानम्।” - अज्ञान का पूर्ण अभाव ही ज्ञान है, अथवा सुख एवं दुःख के हेतुओं से अपने आप को परिचित करना ही ज्ञान है। जैनाचार्यों ने ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा है "ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् ।” - जिसके द्वारा जाना जाये, वह ज्ञान है। जिससे जीव राग से विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है एवं जिससे प्राणी जगत् के प्रति मैत्रीभाव बढ़ता है, उसी को
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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