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________________ भाषाटीकासमेतः। (६३) प्रान्तस्य यद्यद्धमतः प्रतीतं ब्रह्मैव तत्तद्रजतं हि शुक्तिः। इद तथा ब्रह्म सदैव रूप्यते त्वारोपितं ब्रह्मणि नाममात्रम् ॥ २३८॥ भ्रान्त पुरुषके भ्रमसे जो जो वस्तु प्रतीत होती है सो सब ब्रह्मरूपही है जैसे शुक्तिमें रजत प्रतीत होता है सो रजत शुक्तिस्वरूपही है इस प्रकारसे सदा ब्रह्मही निरूपित होते हैं और ब्रह्ममें जो नाना प्रकारका आरोप है सो केवल नाममात्रहीसे भिन्न है ।। २३८॥ अतः परं ब्रह्म सदद्वितीयं विशुद्धविज्ञानघनं निरंजनम् । प्रशान्तमाद्यन्तविहीनमक्रियं निरन्तरानन्दरसस्वरूपम् ॥ २३९ ॥ निरस्तमायाकृतसर्वभेदं नित्यं सुखं निष्कलमप्रमेयम् । अरूपमव्यक्तमनाद्यमव्ययं ज्योतिः स्वयं किञ्चिदिदं चकास्ति ॥२४० ॥ इसलिये जो कुछ यह दृश्य जगत् है सो सब सत्य, अद्वितीय, विशुद्ध, विज्ञानघन, निर्मल, प्रशान्त, आदि अन्तसे हीन, क्रिया रहित, सदा आनन्द रसस्वरूप, मायाकृत सब भेदोंसे अतिरिक्त, नित्य, सुखरूप, निष्कल, अप्रमेय, रूप रहित, अव्यक्त, नाश रहित, स्वयंप्रकाश, ज्योतिःस्वरूप यह परब्रह्मही प्रकाशित है ॥ २३९ ॥ २४० ॥ ज्ञातृज्ञेयज्ञानशून्यमनन्तं निर्विकल्पकम् । केवलाखण्डचिन्मात्रं परं तत्त्वं विदुर्बुधाः ॥२४॥ ज्ञाता ज्ञेय ज्ञान अर्थात् कर्ता कर्म क्रिया इन तीनोंसे शून्य,अनन्त, निर्विकल्प, केवल, अखण्ड, चैतन्यस्वरूप, परमात्मतत्त्वको विद्वान् लोग जानते हैं जैसे घट है. तो उस घटका ज्ञाता मनुष्य होता है और उस घटका ज्ञान मनुष्यमें रहता है जब कि घट है ही नहीं तो
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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