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________________ (६२) विवेकचूडामणिः। यह दृश्य जगत् यदि अपने स्वरूपसे सत्य होय तो आत्मतत्त्वकी कुछ हानि न होगी किन्तु जगतको अनित्य प्रतिपादक वेदकी अप्रामाण्यता होगी और जगत्को अनित्य कहनेवाले ईश्वरभी मिथ्यावादी होंगे जगत्का सत्य होना, और वेदका अप्रामाण्य होना, ईश्वरका मिथ्यावादी होना,ये तीनों बात किसी महात्माको अभीष्ट नहीं इसलिये जगत्को अनित्यही मानना युक्त है ॥ २३४ ॥ ईश्वरो वस्तुतत्त्वज्ञो न चाहं तेष्ववस्थितः । न च मत्स्थानि भूतानीत्येवमेव व्यचीलपत्॥२३५॥ यथार्थवस्तुका ज्ञाता ईश्वरही है हमलोग नहीं हैं और हमारेमें स्थित सब भूत नहीं किन्तु हमहीं भूतोंमें अवस्थित है ऐसीही कल्पना योग्य है ॥ २३५॥ यदि सत्यं भवेद्विश्वं सुषुप्तावुपलभ्यताम् । यन्त्रोपलभ्यते किञ्चिदतोऽसत्स्वप्नवन्मृषा ॥२३६॥ यदि यह विश्व सत्य है तो सुषुप्तिकाल में भी इसकी उपलब्धि होनी चाहिये जबकि सुषुप्तिमें जगतकी उपलब्धि नहीं होती है, तो समझना चाहिये कि, जगत अनित्य है और स्वप्नवत् मिथ्या है २३६ . अतः पृथङ्नास्ति जगत्परात्मनः पृथकू प्रतीतिस्तु मृषा गुणादिवत् । आरोपितस्यास्ति किमर्थवत्ताऽधिष्ठानमाभाति तथा भ्रमेण ॥२३७॥ - जैसे घटका रूप घटसे पृथक् नहीं है तैसे परमात्मासे पृथक यह जगत् भी नहीं है पृथक् जो प्रतीत होता है सो भ्रममात्र है क्योंकि भ्रमसे शुक्तिमें जो रजतका आरोप होता है वह आरोपित रजतकी स्थिति शुक्तिकी स्थितिसे अलग नहीं दीखती किंतु शुक्तिरूपही है तैसे ब्रह्ममें जगत्की प्रतीति भी ब्रह्मस्वरूपही है ॥ २३७ ॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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