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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 59 में आन्तरिक सत्य शीलादि गुणसरिताओं के साथ ओजस्विता एवं प्रभावकता की भी परम आवश्यकता रहती है। जिस प्रकार एक ढीले वक्ता की बात श्रोता दूसरे कान से निकाल देते हैं एवं तेजस्वी, शारीरिकलक्षण सम्पन्न एवं प्रभावशाली वक्ता की बात निश्चय ही सुनते-समझते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय अपने प्रभावी व्यक्तित्व संस्कारों के कारण ही ओजस्वी अतिशयपुरुष बन पाते हैं। सत्य-संतोष आदि ऐसे गुण हैं, जो क्षत्रिय परिवार भी पालता है। ब्राह्मण कुलोत्पन्न व्यक्ति शान्त, सुशील एवं मृदु होता है, तेज प्रधान नहीं। वह अन्यों को वंदन करता है, आज्ञा सुनता है। उसके द्वारा किया गया अहिंसा धर्मप्रचार-प्रसार प्रभावोत्पादक नहीं होता। जबकि क्षत्रिय तेज का धारक वंदनीय होता है, आज्ञा देता है, दूसरों से बात मनवाने की प्रतिभा वाला होता है। जब शस्त्रास्त्र संपन्न व्यक्ति राज्य वैभव सुख-सुविधाओं को साहसपूर्वक त्यागकर, तिलाजंलि देकर अहिंसा की बात करता है, उसका प्रभाव निश्चित रूप से संपूर्ण भव्य जनमानस पर होता है। वैसे भी जैन दर्शन में पूर्वसंचित कर्मों का फल ही व्यक्ति का वर्तमान बनाता है। तीर्थंकर अपने पूर्व कर्मों के कारण ही क्षत्रिय कुल में जन्म लेते हैं, किसी दैवीय शक्ति के कारण नहीं। ज्यादातर, तीर्थंकर नाम कर्म के बंध के साथ ही वह आत्मा 'उच्च गोत्र' कर्म का भी बंध कर ही लेती है एवं अन्य गोत्र के अध्यवसाय से मुक्त हो जाती है। अतः इसी ‘उच्च गोत्र कर्म' के कारण वे क्षत्रिय कुल में जन्मते हैं। अतः यह शाश्वत मर्यादा है कि तीर्थंकरों का जन्म क्षात्रकुल में ही होगा। तीर्थंकर महावीर कुल मद के कारण ब्राह्मण कुल में च्यवित हुए किन्तु ऐसे आश्चर्य में सौधर्मेन्द्र उच्च कुल में संहरण करवा सकता है, ऐसी इन्द्रों की मर्यादा है। इसी को लक्ष्य बना कर कल्पसूत्र की टीका में लिखा है "तीर्थंकर का यदि नीचगोत्रकर्म क्षय न हुआ हो, वेदन न किया हो, निर्जरित न हो, तो वह कर्म उदय में आता है। उसके उदय से श्री अरिहंत परमात्मा भी अन्तप्रान्त तुच्छ, दरिद्रीप्रमुख कुल में आए, आते हैं और आएंगे। कुक्षि में गर्भ के रूप में उत्पन्न हुए हैं और हो सकते हैं। परन्तु योनिमार्ग से जन्मरूप निकलने की बात हो तो निकले भी नहीं, निकलते भी नहीं और निकलेंगे भी नहीं अर्थात् जन्मे भी नहीं और जन्म भी नहीं सकते।" अतएव, तीर्थंकरों का जन्म उच्च कुलों में ही होता है। उच्च कुल में जन्म लेने का अर्थ तपस्या एवं साधना का परिहार नहीं है। क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के बाद भी वे निर्लिप्त भाव ज्ञान मेरा शरण है, दर्शन मेरा शरण है, चारित्र मेरा शरण है, तप और संयम मेरा शरण है तथा भगवान महावीर मेरे शरण हैं। - मूलाचार (2/60)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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