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________________ तीर्थंकर एवं क्षत्रिय कुल तीर्थंकरों का जन्म, लालन-पालन केवल क्षत्रिय कुल में ही होता है, अन्य कुलों में नहीं । ऐसा शाश्वत नियम है। एक तरफ तीर्थकरों ने अपने उपदेशों में जातिवाद का पूर्णत: विरोध किया है, लेकिन फिर भी तीर्थंकर, स्वयं क्षात्रकुल में ही जन्म लेते हैं। ऐसा क्यों ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। इसका हल ढूंढने की कोशिश करते हैं। तीर्थंकर महावीर, सर्वप्रथम, देवलोक से च्यवित होकर ब्राह्मण कुंडनगर के ऋषभदत्त ब्राह्मण की भार्या देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए थे। चूंकि सम्यक्त्व प्राप्ति के तृतीय - मरीचि भव में उन्होंने कुल मद किया था, वे तीर्थंकर भव में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। यह एक आश्चर्य (अच्छेरा) माना गया है। तत्पश्चात् 82वें दिन की रात्रि में इन्द्र महाराज की आज्ञा से हरिणैगमेषी देव ने प्रभु का गर्भ हरण कर क्षत्रियकुंडनगर के राजा सिद्धार्थ की भार्या त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में रखा एवं त्रिशला की पुत्री देवानंदा के गर्भ में रख दी। एवं महावीर स्वामी का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ। शास्त्रों में उग्र, भोग, क्षत्रिय, हरिवंश, राजन्य आदि कुल उत्तम माने हैं एवं ब्राह्मणादि तुच्छ माने हैं। किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है- “ तवो विसेसो, न जाइ विसेसो ।” अर्थात् तप विशेष है, जाति विशेष नहीं है। तीर्थंकरों ने भी सर्वतः साधना और सिद्धान्त के अन्तर्गत गुण, कर्म एवं तप की प्रधानता बताई है, जाति या कुल की नहीं। जन्म की अपेक्षा गुणकर्म की प्रधानता मानी गई है। यथा “कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ ।" अर्थात् व्यक्ति ब्राह्मण या क्षत्रिय अपने कर्मानुसार ही होता है। दरअसल ब्राह्मण ब्रह्मचर्य, संतोषप्रधान एवं दीर्घ भिक्षाजीवी होते हैं। जबकि क्षत्रिय ओजस्वीतेजस्वी-रणकौशल-राज्यक्रियाप्रधान होते हैं । अतः उनका व्यक्तित्व चुम्बकीय एवं प्रभावशाली होता है। धर्मतीर्थ के संस्थापन में, धर्मचक्र के संचालन में, धर्मशासन के रक्षण में एवं धर्मसंघ के उत्थापन शरीर का आदि भी है और अन्त भी । प्रश्नव्याकरण सूत्र (1/2)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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