SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वहां दूसरी ओर उन्होंने अपने इस काव्य को 'वाचालता-चापल' कहकर सुकवियों से सहन कर लेने के लिये भी कहा है: “भेदो विद्यत एव दाहकतया नाऽङ्गारशृंगारयोरित्युक्तं न यदस्मदच्यचरणैः सार्वैस्तदेवाधुना । दाक्षिण्यात् किल नीरसेन रचित किञ्चिन्मयाऽपीति यद्, बालस्यैव सहन्तु मे सुकवयो वाचालताचापलम् ॥१२१॥" एक बाल ब्रह्मचारी के लिये श्रृंगार के रहस्यों को जानना और कहना कठिन होने के साथ ही एक अपूर्व साहस का भी काम है । परन्तु आचार्य ने न केवल शृंगार-काव्य की निर्भीकता पूर्वक रचना की अपितु उस रचना के लिये अपेक्षित अनुभव की कमी को पूरा करने के लिये उन्होंने अनेक शृंगार-काव्यों का परिचय प्राप्त किया और भरत के नाट्यशास्त्र तथा कामसूत्र का भी अध्ययन किया, जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में उन्होंने स्वयं कहा है: "बाचः काश्चिदधीत्य पूर्वसुधियां तत्काव्यदीक्षागुरु, वीक्ष्य श्रीभरतं च संज्ञरुचिर श्रीकामतन्त्रं च तत् । साहित्याम्बुधि बिन्दु बिन्दुरपि सत्यद्य विधित्सुर्मनागयास जिनवल्लभोsहभदिमाः शृंगारसारा गिरा: ।। १२० ।। " आचार्य जिनवल्लभ के लिये यह शृंगार-काव्य कोई मनोविनोद की सामग्री अथवा वाणी - विलास मात्र नहीं था । त्याग और तपस्या के जीवन को अपना कर तत्त्वनिर्णय करना ही उनका चरम लक्ष्य था और यह श्रृंगार - काव्य साधना भी उनको इस लक्ष्य - सिद्धि में आवश्यक सी प्रतीत हुई, क्योंकि, जैसा कि मंगलाचरण में उन्होंने स्वयं कहा है - एकान्ततः तत्त्वनिश्चय संभव नहीं हो सकने के कारण ही कभी - कभी असत् वस्तु का भी आश्रय लिया जाता है: सन्तोऽसदपि कुर्वन्ति भूषणं दूषणं परे । एकान्ततस्ततश्चेह कुतस्त्यस्तत्त्वनिश्चयः ||४॥ सैद्धान्तिक दृष्टि से तत्त्वज्ञान के लिये विरक्तों को शृंगार- ज्ञान की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी आचार्य जिनवल्लभ को इस काव्य की संभावित आलोचना अथवा निन्दा का पूर्वाभास रहा प्रतीत होता है । इसीलिये इन्होंने मंगलाचरण के पश्चात् स्पष्ट कहा है कि, जो सज्जन है वह खलचचनों से आकुल होने पर भी अपने सहज आर्य - आचार को नहीं छोड़ सकता: "लक्ष्मीमुक्तोऽपि देवादुदितविपदपि स्पष्ट दृष्टान्यदोषोप्यज्ञावज्ञाहतोऽपि क्षयभृदपि खलालीकबाक्याकुलोऽपि । नैवं त्यक्त्वाऽचर्या कथमपि सहजा सज्जनोऽसज्जनः स्यात्, कि कौम्भः शातकौम्भः क्वचिदपि भवति त्रापुपो जातुषो वा ||५|| " इसी दृष्टि से कोई व्यक्ति उन दुष्टों के वचनों पर कोई ध्यान नहीं देता जो बिना किसी निमित्त के ही संपूर्ण जगत् का अहित करने में रत रहते हैं और सज्जनों के दोषों की घोषणा करने में ही प्रसन्न होते हैं: बल्लभ-भारती ] [ १२६
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy