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________________ प्रतीत होता है, परन्तु उनके चमत्कार प्र ेम का सबसे बड़ा प्रमाण हमें उनके चित्रकाव्यों में मिलता है । खेद है कि उनके कई चित्रकाव्य (षट्चक्रिका, सप्तचत्रिका, गजबन्धरूप, गोमूत्रिका और गुप्त क्रिया) आज प्राप्त नहीं हैं, परन्तु, यदि नाम से वस्तु का कुछ भी संकेत मिल सकता है, तो श्रीजिनदत्तसूरिजी के इस कथन से अवश्य सहमत होना पड़ेगा कि: जिण कयनाणा चित्त चित्त हरंति लहु तसु दसणु विणु पुन्निहि कउ लब्भइ दुलहु यद्यपि कवि की चित्रकाव्य-श्री की पूर्ण छटा से आज हम वंचित हैं, परन्तु फिर भी धर्मशिक्षा, संघपट्टक, प्रश्नोतरैकषष्टिशत तथा स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र द्वय में जो कुछ उदाहरण प्राप्त हैं उनसे जिनवल्लभ की चित्रकाव्य-प्रतिभा का पर्याप्त आभास मिल जाता है । अतः इनका सामान्य परिचय एक चित्र द्वारा यहां दिया जा रहा है। विशेष परिचय के लिये आरम्भ में 'चित्र-परिचय' द्रष्टव्य है । मन्थानानान्तरजाति कालिदा कालिदासक विना, मदविसरमता, ता म र स वि द म क बि ना नाविक्रसदालिका, तामरसविदम, सरक विदामविदलिता नाम का, प्र० १४३ शृङ्गार - शतक जिनवल्लभ के काव्य की अपूर्वता उनके शृंगार-काव्य में है । साधु-समुदाय के लिये शृंगार तो अंगार के समान अस्पर्य माना जाता है; और फिर कहां तो नीरस तथा विरक्त साधु-जीवन और कहां रसराज शृंगार ! परन्तु श्रृंगार वर्णन के साथ साधु-जीवन की इस सर्वमान्य असंगति को जिनवल्लभ भली भांति समझते थे । अतएव अपने श्रृंगारशतक के अंतिम पद्य में उन्होंने जहां एक ओर 'अंगार-शृंगार की दाहकता का व्यंग्योल्लेख किया है १२८ ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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