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________________ * समर्पण की छलांग * हूं। न तुमसे कोई स्पर्धा है, न तुम्हारी जगह लेने की कोई आकांक्षा ___ मरने के पहले आदमी मूर्छित हो जाता है। इसलिए मृत्यु में जो है। मेरी अपनी जगह है; परमात्मा ने मुझे मेरी जगह दी है। मुझे मेरी | | भेद घटित होता है, शरीर अलग होता है, आत्मा अलग होती है; जगह पर अंकुरित होना है। और जैसे ही व्यक्ति दूसरों से प्रतिस्पर्धा | इंद्रियों के फूल पीछे पड़े रह जाते हैं, सुगंध, सूक्ष्म वासनाएं, छोड़ देता है, वैसे ही परमात्मा में उसका विकास शुरू हो जाता है। | संस्कार आत्मा के इर्द-गिर्द सुगंध की तरह लिपटे हुए नई यात्रा पर और जब तक व्यक्ति दसरों से उलझता रहता है. तब तक परमात्मा | निकल जाते हैं। यह घटना हमारी समझ में नहीं आ पाती; क्योंकि के जगत में उसका कोई विकास नहीं हो पाता। क्योंकि उसका ध्यान हम मूर्छित होते हैं। मूर्छित हम क्यों हो जाते हैं मरते क्षण में? दूसरों पर लगा है, परमात्मा पर तो ध्यान ही नहीं है उसका। एक जीवन की व्यवस्था है कि दुख एक सीमा तक झेला जा अगर तुम मंदिर में भी जाते हो, तो भी तुम इस बात की फिक | सकता है। जहां दुख असह्य हो जाता है, वहीं मूर्छा आ जाती है। करते हो कि प्रार्थना उस जगह पर बैठकर करो जो नंबर एक है! इसलिए जब आप कभी-कभी कहते हैं कि मैं असह्य दुख में हूं, तो प्रार्थना का क्या संबंध नंबर एक से! मंदिर में भी कतारें हैं। वहां भी | आप गलत कहते हैं। क्योंकि असह्य दुख में आप होश में नहीं रह अहंकारी आगे बैठा है! वह दूसरे को आगे नहीं बैठने देगा। सकते, आप बेहोश हो जाएंगे। तभी तक होश रहता है, जब तक ___ अभी कुंभ का मेला भरने को है, वहां अहंकारी पहले स्नान सहने योग्य हो। करेंगे। उस पर दंगा-फसाद हो जाता है, हत्याएं हो जाती हैं, लट्ठ इसलिए जब भी कोई पीड़ा बहुत हो जाएगी, आप बेहोश हो चल जाते हैं। और चलाने वाले संन्यासी हैं। क्योंकि वे कहते हैं, | जाएंगे। कोई भी आघात गहरा होगा, आप बेहोश हो जाएंगे। पहले हमारा हक है, पहले हम स्नान करेंगे। मूर्छा दुख का असह्य हो जाना है। और मृत्यु सब से बड़ा दुख धर्म का क्या संबंध है पहले से? धर्म का संबंध अगर कुछ है, है, हमारे लिए। हम डरते हैं मिटने से, इसलिए। मृत्यु के कारण तो अंतिम से है। आखिरी होने के लिए जो राजी है, वह परमात्मा | नहीं है दुख; मिटने से डरते हैं इसलिए; कि मैं मिट जाऊंगा; मैं का प्यारा हो जाता है। मिटा! इससे जो भय, पीड़ा और संताप पैदा होता है, उसके धुएं में प्रथम होने की जो दौड़ में है, वह परमात्मा से लड़ रहा है। प्रथम | चित्त बेहोश हो जाता है। होने की दौड़ नदी में उलटी धारा में तैरने की कोशिश है। अंतिम लेकिन जिन लोगों ने जीवन में ही समर्पण की कला साधी हो, होने के लिए राजी होने का मतलब है, धारा में बह जाना, धारा के मृत्यु उन्हें बेहोश नहीं कर पाएगी। क्योंकि मिटने के लिए वे पहले साथ एक हो जाना। जहां नदी ले जाए, हम वहीं जाने को राजी हैं। से ही तैयार हैं। वे तलाश कर रहे हैं। वे मिटने का ही विज्ञान खोज समर्पण बहने की कला है। और यह पूरा अस्तित्व परमात्मा है। रहे हैं। जिन्होंने योग साधा हो, तंत्र साधा हो, जिन्होंने ध्यान के कोई इसमें जो बहने की कला सीख लेता है, मंदिर उसके लिए दूर नहीं | प्रयोग किए हों, प्रार्थना की हो कभी, उनकी तलाश एक ही है कि है। मंदिर में वह पहुंच ही गया है। मैं कैसे मिट जाऊं, क्योंकि मेरा होना पीड़ा है। मृत्यु के क्षण में ऐसे अब हम सूत्र को लें। लोग सहर्ष मृत्यु के लिए राजी होंगे। परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को | । संत अगस्तीन एक चर्च बनवा रहा था। उसने एक बहुत बड़े और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को | चित्रकार को बुलाया और कहा कि इस चर्च के प्रथम द्वार पर मृत्यु भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन | का चित्र अंकित कर दो। क्योंकि जो मृत्यु को नहीं समझ पाता, वह ही तत्व से जानते हैं। मंदिर में प्रवेश भी कैसे कर पाएगा! शरीर छोड़कर जाते हुए को...। अगस्तीन ने चर्च के द्वार पर मृत्यु का चित्र बनवाया। जब चित्र जब शरीर छूटता है, और आपका बहुत बार छूटा है, लेकिन वह बन गया, तो अगस्तीन उसे देखने आया। पर उसने कहा कि और घड़ी चूक-चूक जाती है। क्योंकि शरीर छूटने के पहले ही आप तो सब ठीक है, लेकिन यह जो मृत्यु की काली छाया है, इसके बेहोश हो जाते हैं। जब भी कोई मरता है, मरने के पहले ही बेहोश हाथ में तुमने कुल्हाड़ी क्यों दी है? हो जाता है। तो मौत का अनुभव नहीं हो पाता और मृत्यु की जो चित्रकार ने मृत्यु की काली छाया बनाई है, एक भयंकर रहस्यमय घटना है, वह अनजानी रह जाती है। | विकराल रूप और उसके हाथ में एक कुल्हाड़ी दी है। |223]
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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