SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगाभ्यास-गलत को काटने के लिए चेष्टा करो। थोड़ा सोचो भी कि गंवाओगे क्या? कमाओगे क्या? रिश्वत का इंतजाम फैलाकर भागने की योजना बना रहा है। उससे थोड़ा हिसाब भी रखो। थोड़ी व्यवहार बुद्धि का भी उपयोग करो। मिले, तो वह कोई उदास न था। कहा कि उदास नहीं हो! आजीवन नहीं है बिलकुल वैसी बुद्धि। वैसी संयत बुद्धि का हमारे पास सजा हो गई। उसने कहा कि छोड़ो भी। जिस दुनिया में सब कुछ हो कोई खयाल नहीं है। कारण इतना ही है कि हमने कभी उस तरह रहा है, उसमें हम कोई सदा जेल में रहेंगे! निकल जाएंगे। जहां सब सोचा नहीं। कुछ संभव हो रहा है, वहां कोई हम सदा जेल में रहेंगे! तुम दो-चार सोचना शुरू करें। एक-एक कर्म में सोचना शुरू करें कि | दिन में देखना कि हम बाहर हैं। और तुम पंद्रह-बीस दिन के बाद कितनी शक्ति लगा रहा हूं; इतना उचित है? तत्काल आप पाएंगे देखोगे कि हम दरबार में हैं। तुम चिंता मत करो; हम जल्दी लौट कि व्यर्थ लगा रहे हैं। थोड़े कम में हो जाएगा, थोड़े और कम में | आएंगे। और वैसे भी बहुत थक गए थे, पंद्रह-बीस दिन का विश्राम हो जाएगा। मिल गया! हैरान हुए कि उसको जीवनभर की सजा मिली है, वह सुना है मैंने कि अकबर ने एक दफा चार लोगों को सजाएं दीं। | आदमी यह कह रहा है। और जिससे सिर्फ इतना कहा है कि तुझसे चारों का एक ही कसूर था। चारों ने मिलकर राज्य के खजाने से इतनी अपेक्षा, ऐसी आशा न थी, वह फांसी लगाकर मर गया! गबन किया था। और बराबर गबन किया था। असल में चारों ___ अकबर ने ठीक-जिसको कहें कर्म में सम्यक चेष्टा, कितना साझीदार थे। सबने बराबर अशर्फियां ले ली थीं। कहां जरूरी है उतना ही: उससे रत्तीभर ज्यादा नहीं। चारों को बुलाया अकबर ने। और पहले को कहा, तुमसे ऐसी | | योगी को तो ध्यान में रखना ही पड़ेगा कि कर्म में सम्यक चेष्टा आशा न थी! जाओ। वह आदमी चला गया। दूसरे आदमी से कहा हो। बुद्ध ने तो सम्यक चेष्टा पर बहुत बड़ी व्यवस्था दी है। सारी कि तुम्हें सिर्फ इतनी सजा देता हूं कि झुककर सारे दरबारियों के पैर चीजों पर सम्यक होने की व्यवस्था दी है। बुद्ध जिसे अष्टांगिक मार्ग छू लो, और जाओ। तीसरे को कहा कि तुम्हें एक वर्ष के लिए कहते हैं, सब सम्यक पर आधारित है। उसमें सम्यक व्यायाम, राज्य-निष्कासन देता हूं। राज्य के बाहर चले जाओ। चौथे को कहा | | सम्यक श्रम, सम्यक स्मृति, सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान-सब कि तुम्हें आजीवन कैदखाने में भेज देता हूं। चीजें सम्यक हों। कोई भी चीज असम न हो जाए। उसी सम्यक की ___ कैदी जा चुके, दरबारियों ने पूछा कि बड़ा अजीब-सा न्याय | तरफ कृष्ण इशारा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, तुम्हारे कर्मों में तुम सदा किया है आपने! दंड इतने भिन्न, जुर्म इतना एक समान; यह कुछ ही संयत रहना। उतनी ही चेष्टा करना, जितनी जरूरी है; न कम, न न्याय नहीं मालूम पड़ता है! एक आदमी को सिर्फ इतना ही कहा ज्यादा। और फिर तुम पाओगे कि कर्म तुम्हें नहीं बांध पाएंगे। कि तुमसे ऐसी आशा न थी और एक आदमी को आजीवन कैद में सम्यक जिसने चेष्टा की है, वह कर्म के बाहर हो जाता है। जो भेज दिया! ज्यादा करता है, वह भी पछताता है, क्योंकि अंत में फल बहुत ___ अकबर हंसा और उसने कहा कि मैं उनको जानता हूं। अगर तुम्हें कम आता है। जो कम करता है, वह भी पछताता है, क्योंकि फल भरोसा न हो, तो जाओ, पता लगाओ, वे चारों क्या कर रहे हैं! गए। आता ही नहीं। लेकिन जो सम्यक कर लेता है, वह कभी भी नहीं सबसे पहले तो उस आदमी के पास गए, जिस आदमी से कहा था पछताता। फल आए, या न आए। जो सम्यक कर लेता है, वह कि तुमसे ऐसी आशा न थी। उसके घर पहुंचे। पता चला, वह फांसी | कभी नहीं पछताता। क्योंकि वह जानता है, जितना जरूरी था, वह लगाकर मर गया। हैरान हो गए। लौटकर अकबर से कहा। | किया गया। जो जरूरी था, वह मिल गया है। जो नहीं मिलना था, अकबर ने कहा, देखते हैं, वहां सूई भी काफी थी। उतना कहना वह नहीं मिला है। जो मिलना था, वह मिल गया है। मैंने अपनी भी ज्यादा पड़ गया। उतना कहना भी ज्यादा पड़ गया; वह आदमी | तरफ से जितना जरूरी था, वह किया था; बात समाप्त हो गई। ऐसा था। इतना काफी सजा थी, कि तुमसे ऐसी आशा न थी। बहुत ___ एक मित्र अभी मेरे पास आए। उनकी पत्नी चल बसी है। बहुत सजा हो गई! जिसको थोड़ा भी अपने व्यक्तित्व का बोध है, उसके रो रहे थे, बहुत परेशान थे। मैंने उनसे कहा कि पत्नी के साथ तुम्हें लिए बहुत सजा हो गई। अब जाकर देखो उस आदमी को जिसको कभी इतना खुश नहीं देखा था कि सोचूं कि मरने पर इतना रोओगे! कि सजा दी है जीवनभर की। | मैंने कहा, असम्यक चेष्टा कर रहे हो। उस वक्त थोड़ा ज्यादा खुश वे वहां गए, तो जेलर ने बताया कि वह आदमी जेलखाने में हो लिए होते, तो इस वक्त थोड़ा कम रोना पड़ता। [129]
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy