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________________ धर्म का सार-बांटना तुम्हारे मुंह में डाल देंगे! तुम गटक भी न पाओगे; आधा तो बाहर ही बह जाएगा! अब तो गटकने की भी क्षमता नहीं रह गयी। तुम मर रहे हो, तुम्हारा होश खो रहा है, और लोग तुम्हारे कान में भगवान का नाम लेंगे या नमोकार मंत्र पढ़ेंगे, या भक्तांबर स्त्रोत या गीता-पाठ या वेद की ऋचाएं! वह मर रहा है आदमी! उसे अब कुछ सुनायी नहीं पड़ता! जिंदगीभर यह सोचता था कि कभी पूरा निश्चित हो जाऊंगा, तो बैठकर प्रभु का स्मरण कर लूंगा। मगर यह हो नहीं पाता। प्रभु-स्मरण करना हो, तो अभी, या कभी नहीं। यही क्षण! एक क्षण के लिए भी टालना मत, क्योंकि एक क्षण का भी भरोसा नहीं। कौन जाने, दूसरे क्षण मौत आती हो; राम-नाम सत्य हो जाए! तो इसके पहले तुम राम-नाम को सत्य कर लो-अपने जीवन में। यह कौशल नरेश धन ढोने में भूल गया बुद्ध को। हालांकि यह बड़े मजे की बात है, और यह सब के जीवन में होता है। दूसरे की आंख में तो अगर जरा सा कूड़ा-कर्कट पड़ा हो, तो तुम्हें ऐसा लगता है जैसे पहाड़। और अपनी आंख में पहाड़ भी पड़ा हो, तो कूड़ा-कर्कट भी नहीं मालूम होता! __ हम दूसरे के संबंध में निर्णय लेने में बड़े कुशल हैं! हम अपने को बचाए ही चले जाते हैं। हम कभी नहीं सोचते अपने संबंध में। धन ढोते वक्त इसने यह न सोचा कि सात दिन हो गए! मैं रोज सुबह जाता था बुद्ध के प्रवचन सुनने, रोज सत्संग करने, दर्शन करने! सात दिन में फुरसत न मिली! धन में ऐसा उलझा! और दूसरे का धन! अपना भी नहीं। और यह भी देख रहा है कि दूसरा मर गया सब छोड़कर, ऐसे ही मैं भी मर जाऊंगा। मगर वह सवाल नहीं है। वह सवाल उठता ही नहीं। बुद्धिमान जिंदगी के सब सवालों को अपनी तरफ मोड़ देता है और बुद्ध सदा दूसरों की तरफ मोड़े रखता है। यह आदमी अगर थोड़ा बुद्धिमान होता, तो बजाय बैलगाड़ियों को राजमहल ले जाने के, बैलगाड़ियों को वहीं छोड़ता; राजमहल छोड़ता; जाकर बुद्ध से कहता कि आ गया शरण में। बुद्धं शरणं गच्छामि! अब कहीं न जाऊंगा। देख लिया ः एक आदमी इतना धन छोड़कर मर गया; किसी काम नहीं पड़ा। और जब मर गया, तो एक कौड़ी साथ न ले जा सका। अब मैं क्या ले जाऊंगा! मेरी भी मौत करीब आती है। उस अपुत्रक श्रेष्ठी की मृत्यु में अपनी मौत दिख गयी होती। उस अपुत्रक श्रेष्ठी की व्यर्थ जीवन-धारा में, अपने जीवन की व्यर्थता दिख गयी होती। क्रांति घट जाती। __ लेकिन सात दिन तो याद भी न आयी बुद्ध की। हां, कई बार यह सवाल उठा कि यह भी कैसा आदमी था! सब पड़ा रह गया आखिर! अरे! भोग लेता। कुछ उपयोग कर लेता। अब सब दूसरे ले जा रहे हैं! और इस कौशल नरेश को खयाल ही नहीं कि ऐसे ही तुम मरोगे और इसी तरह 223
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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