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________________ एस धम्मो सनंतनो ही आकर्षण प्रबल होता है। जितना तुम कहोगे, मत जाओ आग के पास, उतना आग में बुलावा मालूम होता है। बच्चे को ऐसा लगने लगता है, जरूर कुछ होगा वहां, अन्यथा सारे लोग रोकने के पीछे क्यों पड़े हैं! कुछ भी न होता तो इतने लोग रोकते क्यों? ऐसी ही मनुष्य की दशा है। हजारों-हजारों वर्षों से जाग्रत पुरुषों ने बार-बार कहा है, वहां मत जाओ, वहां कुछ भी नहीं है। उनके निरंतर कहने का परिणाम यह हुआ है कि हमारा मन कहता है कि समस्त जाग्रत पुरुष जब कहते हैं कि वहां मत जाओ, जरूर कुछ होगा। कहीं ऐसा न हो कि कुछ हो ही। इतने लोग रोकते हैं तो कुछ होना ही चाहिए। तो हम काम में जाते, क्रोध में जाते, लोभ में जाते, मोह में जाते और इनको हम प्रिय कहते हैं! हम कहते हैं, ये हमें प्यारे लगते हैं। ___और मजा यह है कि छोटा बच्चा अगर आग में जल जाए तो एक ही अनुभव काफी होगा, दुबारा फिर आग की तरफ न जाएगा। हमारी मूर्छा और भी घनी है। कितनी बार क्रोध किया है! और कितनी बार क्रोध की आग में जले हैं। फिर भी जब होगा तो करना प्रिय लगता है। लोभ कितनी बार किया है! और लोभ से क्या पाया है? नींद खो दी, नींद हराम हुई, चिंता जगी, बेचैनी हुई, उद्विग्न हुए, विक्षिप्तता पैदा हुई, लोभ से पाया क्या है? यहां पाने को क्या है जो लोभ से कोई पा लेगा! लेकिन फिर जब लोभ जगेगा तो प्रिय मालूम पड़ेगा। श्रेय का अर्थ है, जो अंततः प्रिय है, जो अंततः प्रेय सिद्ध हो। जागकर भी प्रेय सिद्ध हो। सोए-सोए ही प्रेय न मालूम पड़े, जागकर भी प्रेय सिद्ध हो। अनुभव के बाद भी प्रिय सिद्ध हो। आग में हाथ डालने के बाद भी हाथ न जले और हाथ और भी स्वस्थ होकर, और भी सुंदर होकर निकल आए, तो फिर आग भी प्रिय हो गयी। दूर से तो लगे कि बड़ी सुंदर है, खेलने जैसी है, लपट पकड़ने जैसी है, आकर्षण मालूम हो, पास जाकर सिर्फ जलना हो, घाव बने, नासूर बने...। तो बुद्ध ने जिसे प्रेय कहा है उसका अर्थ हुआ—तुम्हारी मूर्छा में जो सुंदर लगता, लेकिन अनुभव से सुंदर सिद्ध नहीं होता। तुम्हारी मूर्छा में जो आकर्षक लगता, लेकिन अनुभव से आकर्षक सिद्ध नहीं होता। मूर्छा में जो सत्य लगता, अनुभव से स्वप्न जैसा सिद्ध होता। जो दूर-दूर से तो सुंदर मनमोहक मालूम होता, पास जैसे-जैसे आते, सारा सौंदर्य तिरोहित हो जाता। इंद्रधनुष जैसा है जो। दूर आकाश में खिंचा, कितना सुंदर, पास जाकर मुट्ठी बांधोगे तो कुछ भी हाथ में न आएगा। धुआं भी हाथ में न आएगा, धूल भी हाथ में न आएगी, वहां कुछ है नहीं। इंद्रधनुष दूरी में है, निकटता में नहीं। __ जो पास आकर भी सत्य सिद्ध हो, जो परिपूर्ण अनुभव से गुजरकर भी सुंदर सिद्ध हो, भोग-भोगकर भी जिसमें पीड़ा न हो, आनंद का रस बढ़ता चला जाए, उसे बुद्ध ने श्रेय कहा है। उसे श्रेय इसलिए कहा है, ताकि तुम जिसे अभी प्रेय समझते 228
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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