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________________ धर्म अनुभव है और अहिंसा भी, सजन भी और विध्वंस भी। वह भक्त की धारणा है। भक्त कहता है, भगवान हजार रूप में प्रगट होता है, सब रूप उसके। कभी वह विध्वंसक के रूप में भी प्रगट होता है। क्योंकि विध्वंस किसका? उसका ही। वही कर्ता है, हम तो कोई कर्ता नहीं हैं। कभी वह बुद्ध की तरह प्रगट होता है-करुणा का सागर। और कभी वह परशुराम की तरह प्रगट होता है—फरसे को हाथ में लिए हुए अति कठोर। कभी वह चट्टान की तरह प्रगट होता है और कभी फूल की तरह भी। चट्टान भी वही है और फूल भी वही है। दोनों वही है। _ फिर, उसका प्रयोजन वही जाने। अगर हमारी समझ में नहीं पड़ता, क्योंकि हमें लगता है, हमारे मूल्य के विपरीत जाती है यह बात कि कोई आदमी हिंसा कर रहा है, तो इस हिंसा का क्या प्रयोजन! कभी-कभी हिंसा का भी प्रयोजन है। कभी-कभी बुराई से भी लड़ना होता है। और कभी-कभी हिंसा से लड़ने का एक ही उपाय होता है-हिंसा। क्षत्रिय तो हिंसा का प्रतीक है। जब हम कहते हैं, परशुराम ने सारी दुनिया को क्षत्रियों से खाली कर दिया, तो हम इतना ही कह रहे हैं कि परशुराम ने सारी दुनिया को हिंसा से खाली कर दिया। मगर क्षत्रियों से जूझना हो तो क्षत्रिय होकर ही जुझा जा सकता है, और कोई उपाय नहीं है। वे तो तलवार की भाषा ही समझते हैं। ___ अब तुमको ऊपर से तो देखने में लगेगा कि परशुराम हिंसक हैं, अगर भीतर गौर से इस प्रतीक में झांकोगे तो पता लगेगा कि परशुराम ने दुनिया से हिंसा को मिटाने का जैसा वृहत आयोजन किया, वैसा न बुद्ध ने किया, न महावीर ने। बुद्ध और महावीर तो समझाते रहे कि भई, हिंसा मत करो। परशुराम तो लेकर फरसा और जूझ पड़े, कि मिटा ही डालेंगे, हिंसा की जड़ों को काट डालेंगे। मगर एक मजे की बात देखते हो, न बुद्ध के और महावीर के समझाने से हिंसा जाती है, न परशुराम के अठारह बार क्षत्रियों को काट डालने से हिंसा जाती है। ___ तो इसमें एक और गहरा सत्य छिपा है कि इस जगत से द्वंद्व कभी नष्ट होता ही नहीं। बुराई और भलाई साथ-साथ हैं। हिंसा-अहिंसा साथ-साथ हैं। करुणा-कठोरता साथ-साथ हैं। ऐसा कभी भी नहीं होगा कि तुम एक को काटकर गिरा दोगे। बुद्ध महावीर समझाकर न गिरा सके, और परशुराम ने तो बड़ी चेष्टा की, भयंकर चेष्टा की, बड़ा श्रम लिया कि सारे क्षत्रिय काटते गए, कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी, मगर फिर-फिर हिंसा उभर आयी। इस जगत से द्वंद्व नष्ट नहीं होने वाला। यह कथा का गहरा अर्थ है। तो फिर क्या करें? तुम द्वंद्व के बाहर हो सकते हो, जगत से द्वंद्व नहीं मिटने वाला। तुम द्वंद्व के बाहर हो सकते हो, जगत से द्वंद्व कभी नहीं मिटेगा। हां, तुम जब चाहो तब द्वंद्व से बाहर सरक जाओ। और उस सरक जाने की कला ही है साक्षीभाव। तुम साक्षी हो जाओ; न अहिंसक, न हिंसक; न इधर, न उधर; तुम मध्य में खड़े होकर बीच से निकल जाओ। तुम कह दो कि अब मैं कर्ता नहीं हूं। लेकिन व्यर्थ के 175
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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