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________________ एस धम्मो सनंतनो आधी बात सच कह रहा है। आधे लोग भक्ति से पहुंच सकते हैं। तुम ध्यानी से पूछो, ज्ञानी से पूछो, वह कहता है, ध्यान के मार्ग से ही कोई पहुंचता है, भक्ति के मार्ग से कैसे पहुंचोगे ! वह सब कपोल कल्पना है। वह भी आधी बात सच कह रहा है। आधे लोग ध्यान से पहुंचे हैं, आधे लोग भक्ति से पहुंचे हैं। और लोग उस मार्ग पर चलने की चेष्टा करते रहे जो उनका नहीं था, जिस मार्ग के साथ उनके हृदय का मेल नहीं बैठता था, वे कभी नहीं पहुंचते हैं, वे भटकते ही रहे हैं। तुम अगर भटक रहे हो तो बहुत संभावना यही है कि तुम ऐसे द्वार से प्रवेश कर रहे हो, जो तुम्हारा द्वार नहीं है। तो जब मैं कहता हूं, प्रेम परमात्मा है, तो मेरा अर्थ है उन आधे लोगों के लिए जो प्रेम से ही प्रवेश पा सकेंगे। यह उनके लिए कह रहा हूं। सबको इसे मान लेने की जरूरत नहीं है । जिनको यह बात न जमती हो, वे इसे छोड़ दें। I मगर हम बड़े परेशान होते हैं। कभी-कभी हम ऐसी बातों के लिए परेशान होते हैं जिनका कोई प्रयोजन नहीं होता है। कल एक मित्र - बुद्धिमान मित्र - रात मिलने आए। प्रश्न पूछा, तो अजीब सा प्रश्न पूछा। प्रश्न यह पूछा कि परशुराम को अवतार क्यों कहा जाता है ? क्योंकि उन्होंने तो सिर्फ हिंसा की, मार-काट की, पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया, विध्वंस ही विध्वंस। उनको अवतार क्यों कहा जाता है ? अब पहली तो बात यह कि क्या लेना-देना परशुराम से! तुम्हें अवतार न जंचते हों, क्षमा करो, उनको जाने दो। कोई परशुराम तुम पर मुकदमा नहीं चलाएंगे कि तुमने हमें अवतार क्यों नहीं माना। भूलो, क्या लेना-देना परशुराम से ! हुए भी कि नहीं हुए, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। तुम क्यों अड़चन ले रहे हो ? अब दूर से, दिल्ली से चलकर मुझसे मिलने आए हैं, और मिलकर पूछा यह ! फिर अगर ऐसा लगता है कि परशुराम का मामला हल ही करना होगा, तभी तुम आगे बढ़ सकोगे – जो कि मेरी समझ में नहीं आता कि क्यों, परशुराम से क्या प्रयोजन है ! बुद्धि की खुजलाहट है। नहीं जंचती बात, नहीं जंचती । अब उन पर अहिंसा का प्रभाव होगा, महावीर और बुद्ध का प्रभाव होगा, उनके मन में यह बात जंचती होगी कि अवतारी पुरुष तो अहिंसक होना चाहिए । कुछ कल्याण का काम करे । विध्वंस ! इसको अवतार क्यों कहना ? तुम्हें अगर महावीर और बुद्ध की बात ठीक जमती है, तो महावीर और बुद्ध के मार्ग वाले परशुराम को अवतार कहते भी नहीं, तुम फिकर छोड़ो। लेकिन अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारी गांठ परशुराम से बंधी है, और तुम्हारा मन मानने का करता है कि होने तो चाहिए अवतार और फिर ये और दूसरी धारणाएं बाधा डालती हैं, तो दूसरी धारणाओं को छोड़ो, फिर समझने की कोशिश करो। हिंदू विचार तो समस्त जगत को दैवीय मानता है, दिव्य मानता है— हिंसा भी 174
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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