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________________ अशांति की समझ ही शांति आपकी शरण आए हैं । हमारी प्रार्थना है कि यह हमारी मंजिल हो, कहीं और न जाना पड़े। उस फकीर ने उन तीनों को गौर से देखा। उसने अपने झोले में से तीन स्वर्णपात्र निकाले, एक-एक तीनों को दे दिया और कहा ये बातें पीछे हो लेंगी, इन पात्रों को साफ कर लाओ, स्वच्छ कर लाओ। पहले ने पात्र को गौर से देखा । पात्र स्वच्छ ही था, ऐसा उसे लगा; क्योंकि गंदे पात्रों से ही पानी पीने की उसे आदत थी । वस्तुतः इतना स्वच्छ पात्र उसने कभी देखा ही न था । पात्र स्वच्छ न था, लेकिन उसका सारा अनुभव गंदे पात्रों का था, उनकी तुलना में यह स्वच्छ ही मालूम हुआ। सोने का था। सोने ने ही उसे चकाचौंध से भर दिया। वह तो पात्र रखकर वहीं बैठ गया । । दूसरे ने गौर से पात्र को देखा, उठा, बाहर की तरफ गया, नदी की तरफ पहुंचा, किनारे पर जाकर नदी के, उसने खूब रगड़-रगड़ कर पात्र को धोया । रेत से रगड़ा, फिर भी तृप्ति न हुई तो पत्थरों से रगड़ने लगा। उसने रगड़ ही डाला पात्र को । वह पानी भरने योग्य भी न रह गया। उसने सफाई बिलकुल कर दी। उसमें छेद हो गए। नाजुक पात्र था, उसने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे कोई लोहे के पात्र को साफ कर रहा हो । जिद्दी था । जब गुरु ने कह दिया तो उसने इसको अहंकार बना लिया कि साफ ही करके ले जाऊंगा। उसने सफाई ऐसी की कि पात्र ही न बचा! लौटकर आया तो उसकी शकल पहचाननी मुश्किल थी । तीसरे ने गौर से पात्र को देखा, खीसे से रूमाल निकाला, भीतर गया घर में, पानी में भिगाया और उस गीले वस्त्र से आहिस्ते से उस पात्र को साफ किया, वापस लाकर बैठ गया । उस फकीर ने तीनों के पात्र देखे। पहले के पात्र पर मक्खियां भिनभिना रही थीं। लेकिन उसे मक्खियां दिखायी भी नहीं पड़ रही थीं, क्योंकि मक्खियों में ही जीया था। उसके चेहरे पर भी भिनभिना रही थीं, वह उनको भी नहीं उड़ा रहा था। गुरु ने कहा कि तू जरा गौर से तो देख, तूने पात्र साफ नहीं किया। मैंने कहा था ... । उसने कहा, पात्र साफ है, अब और क्या साफ करना ! सुंदर पात्र है, और क्या करना है ! गुरु ने कहा, देख, मक्खियां भिनभिना रही हैं। उसने कहा कि वे तो इसलिए भिनभिना रही हैं...वे तो फूलों पर भी भिनभिनाती हैं, इससे क्या फूल गंदे हैं ? वे तो पात्र की मधुरता के कारण भिनभिना रही हैं । दूसरे से कहा, पानी भर । पहले का पात्र तो पानी भरने योग्य ही न था, गंदा था। दूसरे ने पानी भरा, लेकिन पानी बह गया। उसने सफाई जरूरत से ज्यादा कर दी थी। पात्र ही नष्ट कर लाया था । कहते हैं, गुरु ने दो को विदा कर दिया, तीसरे को स्वीकार कर लिया। तीसरे ने पूछा कि मैं समझा नहीं। यह क्या हुआ? यह लेन-देन क्या है ? यह राज क्या है इन पात्रों के बांटने का और चुनने का ? उसके गुरु ने कहा, पहला भोगी है, गंदगी 231
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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