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________________ जीवन-मृत्यु से पार है अमृत के वचन में मात्र उपदेश होता है। आदेश का मतलब है, धर्मगुरु कह रहा है कि मेरी कुछ योजना है, उसके अनुसार चलो। मेरी मानो। मैं जो कहता हूं, वैसा आचरण करो। भाषा तो एक ही दोनों उपयोग करते हैं, इसलिए बड़ी भूल हो जाती है। तो धम्मपद के इन वचनों को तुम तथ्य निरूपक मानना। ये उपदेश हैं। इनमें कोई आदेश नहीं। तुम जरा सोचों, जैसे ही मैं कहता हं, इनमें कोई आदेश नहीं है, तुम्हारे भीतर से कुछ चीज हट जाती है। अगर नहीं करने का जोर नहीं है, तो करने का मजा ही हट जाता है। ___ 'छोटे सार्थ, जिनके पास छोटा सा काफिला है, लेकिन धन बहुत है, ऐसा व्यवसायी भययुक्त मार्ग को छोड़कर चलता है। या, जिस तरह जीने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति विष को छोड़ता है, उसी तरह पापों को छोड़ दे।' ध्यान रखना, इसमें छोड़ने पर जोर नहीं है। इसमें बात कुल इतनी ही है कि अगर तुम चाहते हो कि जीना है, तो फिर विष तुम्हारे काम का नहीं। मरना हो, तो विष ही काम का है। अगर तुम चाहते हो कि लुटना नहीं है, तो भययुक्त रास्तों को छोड़ देना उचित है। अगर तुम चाहते हो कि लुटने का मजा लेना है, तो भूलकर भी भययुक्त रास्तों को छोड़ना मत।। ___और बुद्ध केवल इतना कह रहे हैं कि तुम्हारे पास सामर्थ्य तो कम है और धन बहुत है। समय तो कम है और संपत्ति बहुत है। सुरक्षा का उपाय तो कम है और तुम्हारे भीतर बड़े मणि-माणिक्य हैं। प्रत्येक बच्चा परमात्मा की संपत्ति को लेकर पैदा होता है। वह संपत्ति इतनी बड़ी है कि उसकी रक्षा करना ही मुश्किल है। और उपाय रक्षा करने का कुछ भी नहीं है। संपत्ति कुछ ऐसी है कि उस पर तुम पहरा भी नहीं बिठा सकते। संपत्ति कुछ ऐसी है कि सैनिक संगीनधारी भी उसे बचा न सकेंगे। संपत्ति कुछ ऐसी है कि तुम्हारा होश ही पहरा बन सकता है, अन्यथा तुम गंवा दोगे। ___ पाप तुमसे कुछ छीन लेता है जो तुम्हारे पास था। पाप तुम्हें देता कुछ भी नहीं, तुम्हें रिक्त कर जाता है। पाप के क्षणों के बाद अगर तुम थोड़ा भी विमर्श करोगे, विचार करोगे, तो तुम पाओगे, तुम रिक्त हुए, दरिद्र हुए। कुछ था, जो तुमने गंवाया। क्रोध के बाद तुम्हें ऐसा नहीं लगा है कि कोई ऊर्जा पास थी जो तुमने खो दी? कुछ शक्ति पास थी, जो तुमने कचरे में फेंक दी? हीरा हाथ में था, नाराज होकर फेंक दिया? जैसे तुम हीरा लिए चल रहे हो और किसी ने गाली दे दी और तुमने हीरा उठाकर मार दिया। क्रोध के बाद तुम्हें ऐसा नहीं लगा है कि कुछ गंवाया, पाया तो कुछ भी नहीं? घृणा के बाद, वैमनस्य के बाद, हिंसा के बाद, ईर्ष्या के बाद, मत्सर के बाद तुम्हें ऐसा नहीं लगा है कि पाया तो कुछ भी नहीं, हाथ में उलटा कुछ था वह छूट गया? पाप का इतना ही अर्थ है कि तुम बेहोश हुए और जो संपदा होश में बच सकती 113
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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