SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो जब तुम बुद्धों के वचन सुनो, तब तौलते रहना कि तुम्हारे अनुभव से मेल खाते हैं? और तुम अपने ऊपर किसी को भी कभी मत रखना, क्योंकि उधार ज्ञान जीवन में क्रांति नहीं लाता। शास्त्र कितने ही सुंदर हों, सुंदर ही रह जाते हैं, सृजनात्मक नहीं हो पाते। उनके वचन कितने ही प्यारे लगते हों, बस मन का ही भुलावा है, तुम्हारी वस्तुस्थिति को रूपांतरित नहीं कर पाते। ___ तो याद रखना अपनी। बुद्धों के वचन सुनने में बड़े से बड़ा खतरा यही है कि उनके वचन तर्कयुक्त हैं, उनके वचन सत्ययुक्त हैं, उनके वचन अनुभव से सत्य सिद्ध हुए हैं, उनके वचन कोई सिद्धांत नहीं हैं, उनके जीवन की प्रक्रिया से आविर्भूत हुए हैं, उनका प्रभाव होगा; लेकिन प्रभाव को तुम अपने जीवन का आधार मत बना लेना। उनसे प्रेरणा मिलेगी, लेकिन उस प्रेरणा को मानकर तुम गलत दिशा में मत चले जाना। गलत दिशा है कि तुमने मान लिया कि हां, पाप बुरा है। अब तुम पाप से बचने की चेष्टा शुरू कर दोगे। और अभी तुमने जाना ही न था कि पाप बुरा है। जानने के लिए तो पहले आंख खुलनी चाहिए। पहली बात। दूसरी बात, जब बुद्धपुरुष कहते हैं, पाप अग्नि जैसा है, जहर जैसा है, तो तम यह मत समझना कि वे पाप की निंदा कर रहे हैं। धर्मगुरु करते हैं। दोनों के वचन एक जैसे हैं; इससे बड़ी भ्रांति होती है। धर्मगुरु जब कहता है, पाप जहर है, तो वह निंदा कर रहा है। जब बुद्ध कहते हैं, पाप जहर है, तो केवल तथ्य की सूचना दे रहे हैं। पाप को जहर कहने में उन्हें कुछ मजा नहीं आ रहा है। पाप को जहर कहने में उनकी कोई दबी हुई कामना नहीं है। जब धर्मगुरु कहता है, पाप जहर है, तो वह तथ्य की घोषणा नहीं कर रहा है। वह यह कह रहा है कि मेरे भीतर पाप के प्रति बड़ा आकर्षण है, मैं जहर-जहर कहकर ही उस आकर्षण को किसी तरह रोके हुए हूं। धर्मगुरु की आंखों में तुम गौर से देखना जब वह पाप को जहर कहता है, तो उसकी आंखों में वही भाव नहीं होता जब वह कहेगा दो और दो चार होते हैं। आंखों में फर्क होगा। जब वह कहता है, दो और दो चार होते हैं, तो आंखों में कोई रौनक नहीं होती, कोई भावावेश नहीं होता। वह उत्तेजित नहीं होता। दो और दो चार होते हैं, इसमें उत्तेजित होने की बात ही क्या है? लेकिन जब वह कहता है, पाप अग्नि है, जहर है, तब तुम पाओगे कि उसकी आंख में उत्तेजना आने लगी। पाप का शब्द ही उसके भीतर किसी चीज को डगमगाने लगा। पाप का शब्द ही उसके भीतर किसी रस को उठाने लगा। जब वह तुमसे कहता है, पाप बुरा है, तो वह अपने से कह रहा है-पाप बुरा है, सम्हलो। जितने जोर से वह पाप की निंदा करता है, उतने ही जोर से वह खबर देता है कि भीतर उसके पाप के प्रति बड़ा आकर्षण है।। धर्मगुरु से तुमने अगर पाप के संबंध में समझा, तो तुम गलत रास्ते पर जाओगे। तुम्हें धर्मगुरु की बात ठीक भी लगेगी और तुम उसे कभी पूरा कर भी न पाओगे। यात्रा ही गलत शुरू हो गयी। 110
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy