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________________ जीवन-मृत्यु से पार है अमृत पहली बात, जब बुद्धपुरुष कहते हैं पाप अग्नि जैसा है, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम्हें भी समझ में आ जाएगा कि पाप अग्नि जैसा है। वे यह कह रहे हैं कि उन्होंने जागकर जाना कि पाप अग्नि जैसा है। सोकर तो उन्हें भी पाप में बड़े फूल खिलते मालूम होते थे। सोकर तो उन्हें भी पाप बड़ा आकर्षक था, बड़ा निमंत्रण था उसमें, बड़ा बुलावा था। बुलावा इतना सघन था कि आग की जलन और आग से पड़े घाव भी फूलों में ढंक जाते थे। बुद्धपुरुष यह कह रहे हैं, जो जागा, उसने जाना कि पाप आग जैसा है। सोए हुए का यह अनुभव नहीं है। इसलिए तुम बैठकर यह मत दोहराते रहना कि पाप अग्नि जैसा है, विष जैसा है। इसके दोहराने से कछ भी लाभ न होगा। इसे तो सदियों से आदमी दोहराता है। तोतों की तरह याद भी हो जाता है, लेकिन जब भी जीवन में कोई घड़ी आती है, सब याददाश्त, सब रटंत व्यर्थ हो जाती है। जब भी कोई जीवन में सक्रिय क्षण आता है, पाप पकड़ लेता है। निष्क्रिय क्षणों में हम पुण्य की बातें सोचते हैं। नपुंसक क्षणों में हम पुण्य की योजनाएं बनाते हैं। ऊर्जा के, शक्ति के क्षणों में पाप घटता है। ऐसा लगता है, पुण्य की हमारी योजनाएं व्यर्थ के समय को भर लेने का उपाय हैं। खेल-खिलौने हैं। जब कुछ करने को नहीं होता, तब हम उनसे खेल लेते हैं। जब पाप करने को नहीं होता, तब हम पुण्य की बातें करके अपने को समझा लेते हैं। जब करने की बात उठती है, तब पाप होता है। जब सोचने तक की बात हो, तब तक पुण्य का हम विचार करते हैं। पापी से पापी भी विचार तो पुण्य के ही करता है। इसलिए विचारों के धोखे में मत आ जाना। अगर बहुत पुण्य का सोचते हो, इससे यह मत सोच लेना कि तुम पुण्यवान हो गए। और बुद्धपुरुषों के वचनों को दोहराकर मत समझ लेना कि तुम समझ गए उन्होंने जो कहा था। उनकी बात तुम्हें समझ में तभी आएगी जब तुम जागोगे। ___तो जब वे कहते हैं, पाप अग्नि जैसा है, तुम इस उधार को मान मत लेना। तुम तो जानना कि पाप अभी मुझे अग्नि जैसा दिखायी नहीं पड़ता। अभी तो मुझे पाप में बड़ा आमंत्रण है, बड़ा रस है। अभी तो पाप मुझे भोग का बुलावा है। जहर नहीं, अमृत है। तुम अपने को मत झुठलाना। तुम बुद्धपुरुषों के वचनों को मत ओढ़ लेना, अन्यथा भटक जाओगे। तुम तो कहे जाना कि मेरा अनुभव तो यही है कि पाप बड़ा प्रीतिकर है। आप कहते हैं, ठीक कहते होंगे, लेकिन मुझे दिखायी नहीं पड़ता। ___ अगर तुमने यह याद रखी कि तुम्हारे पास आंख नहीं है, तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, तो तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया में बदलाहट होगी। बदलाहट यह होगी कि तुम पाप छोड़ने की फिक्र न करोगे, आंख पैदा करने की फिक्र करोगे। और वहीं सारा...सारी चीज वहीं निर्भर है। अगर तुमने पाप को छोड़ने की फिकर की, तुम भटके। तुम भूले। अगर तुमने आंख को बदलने की कोशिश की, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होगी। 109
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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