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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ 78 और ध्यान रखें, इतनी यात्रा में गंगा गंदी हो जाती है— स्वभावतः । सागर उसे फिर नया और ताजा कर देता है । बिखर जाती है, सब रूप खो जाता है। फिर निमज्जित हो जाती है मूल में। फिर धूप, फिर बादल बनते हैं। इन बादलों में गंदगी नहीं चढ़ सकती। बादल शुद्धतम होकर आकाश में आ जाते हैं। फिर हिमालय पर बरस जाते हैं। फिर गंगोत्री नई और ताजी है। फिर यात्रा शुरू हो जाती है। लाओत्से कहता है, जीवन एक वर्तुल यात्रा है। टूटना पुनः होने का उपाय है; मिटना नए जीवन की शुरुआत है; मृत्यु नया गर्भाधान है। इसलिए घबड़ाओ मत कि टूट जाएंगे; टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे; अगर झुकेंगे, मिट जाएंगे; अगर खाली रहेंगे, क्या भरोसा, भरे गए, न भरे गए; किस पर विश्वास करें? अपनी रक्षा अपने ही हाथ करनी है ! ऐसा बचाने की कोशिश जिसने की, वह सड़ जाएगा। उसकी गति अवरुद्ध हो जाएगी। गति का सूत्र है : मिटने की सदा तैयारी। जीवन का महासूत्र है: प्रतिपल मरने की तैयारी, प्रतिपल मरते जाना, प्रतिपल मरते जाना । बायजीद रात जब विदा होता अपने शिष्यों से तो रोज नमस्कार करता और कहता, शायद सुबह मिलना हो, न हो मिलना, आखिरी प्रणाम ! यह रोज आखिरी नमस्कार! सुबह उठ कर कहता कि फिर एक मौका मिला नमस्कार शिष्यों ने कई बार बायजीद को कहा कि आप यह क्या करते हैं रोज रात को ? बायजीद कहता कि रोज रात मृत्यु में जाने की तैयारी होनी चाहिए। और तभी तो मैं सुबह इतना ताजा उठता हूं; क्योंकि तुम सिर्फ सोते हो, मैं मर भी जाता हूं। इतना गहरा उतर जाता हूं, सब छोड़ देता हूं जीवन को । इसलिए बायजीद की ताजगी पाना बहुत मुश्किल है। सुबह बायजीद जब उठता तो वैसे ही जैसे नया बच्चा जन्मा हो। उसकी आंखों में वही निर्दोष भाव होता। क्योंकि सांझ जो मर सकता है, सुबह वह फिर से पुनरुज्जीवित हो जाता है। हम तो रात नींद में भी अपने को पकड़े रहते हैं कि कहीं खिसक न जाएं, सम्हाले रखते हैं कि कहीं कोई गड़बड़ न हो जाए । तो सुबह हम वैसे ही उठते हैं, जैसे हम रात भर सोते हैं। 'अभाव है संपदा । संपत्ति है विपत्ति और विभ्रम ।' अभाव है संपदा, न होना संपत्ति है । होना विपत्ति है। लाओत्से कहता है, जितना ज्यादा तुम्हारे पास होगा, उतनी तुम अड़चन और मुसीबत में रहोगे। क्योंकि भोग तो तुम उसे पाओगे ही नहीं, सिर्फ पहरा दे पाओगे। और जितना ज्यादा होता जाएगा, उतनी तुम्हारी चिंता का विस्तार होता चला जाएगा। जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह प्रतिपल भारहीन, निर्भार होकर जी पाता है। पांई का नगर जला, सारा गांव भागा। जो-जो बन सका जिससे ले जाते । ज्वालामुखी फूट पड़ा आधी रात । कोई अपनी तिजोरी ले जा रहा है। कोई अपने कागजात ले जा रहा है। कोई अपने बच्चे को, कोई अपनी पत्नी को । जिसको जो, जिस पर सुविधा थी, वह लेकर भागा। और सभी दुखी हैं। सभी दुखी हैं, क्योंकि सभी का बहुत कुछ छूट गया है। आग इतनी अचानक थी और क्षण भर रुकना मुश्किल था कि जो हाथ में लगा, वह लेकर भागा। सभी रो रहे हैं। सिर्फ एक आदमी पांपेई के नगर में नहीं रो रहा है, अरिस्टीपस नाम का एक आदमी नहीं रो रहा है। तीन बजा है रात का; अपनी छड़ी लिए उसी भीड़ में पूरे नगर के लाखों लोग अपना सामान लेकर भाग रहे हैं-वह अपनी छड़ी लिए जा रहा है। अनेक लोग उससे कहते हैं, अरिस्टीपस, कुछ बचा नहीं पाए ? अरिस्टीपस कहता है, कुछ था ही नहीं। हम इकट्ठा करने की झंझट में ही नहीं पड़े, बचाने की भी कोई झंझट नहीं रही। सारे लोग भाग रहे हैं और अरिस्टीपस टहल रहा है। लोग उससे पूछते हैं कि तू भाग नहीं रहा ? अरिस्टीपस कहता है कि इतने वक्त हम रोज ही सुबह घूमने जाते हैं। वह अपनी छड़ी लिए घूमने जा रहा है। चिंतित नहीं हो ? पीछे तुम्हारा मकान ? अरिस्टीपस कहता है, अपने सिवाय अपने पास और कुछ भी नहीं है।
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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