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________________ ताओ हूँ झुकने वाली होने व मिठने की कला 77 कम से कम एक कौर बयालीस बार चबाना ही पड़ेगा। तभी वह ठीक से चबा । लेकिन बयालीस बार एक कौर ? सोच कर ऐसा लगेगा कि जिंदगी फिर चबाने में ही चली जाएगी। भर दो। आपको पता ही नहीं है कि पेट के पास फिर कोई दांत नहीं हैं। और पेट सिर्फ एक तरह की चमड़ी है। और पेट के पास उसे पचाने का कोई उपाय नहीं है। ऊपर से भरते चले जाओ, नीचे से निकलने मत दो। और ये दोनों एक साथ होंगी घटनाएं तो आदमी की जिंदगी एक कचरे का ढेर हो जाती है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि सब चीजें जुड़ी हैं। जो आदमी ठीक से नहीं चबाएगा, वह हिंसक हो जाएगा। उसका व्यवहार हिंसक हो जाएगा। क्योंकि जो आदमी ठीक से चबा लेगा, उसकी हिंसा की बड़ी मात्रा चबाने में निकल जाती है। ठीक से चबाने वाले लोग मिलनसार होंगे। ठीक से नहीं चबाने वाले लोग मिलनसार नहीं होंगे। जो ठीक से चबा लेगा, उसका क्रोध कम हो जाएगा। क्योंकि दांत हमारे हिंसा के साधन हैं। जो ठीक से नहीं चबाएगा, वह कहीं और क्रोध निकालेगा, वह किसी और को चबाने के लिए तैयार रहेगा । और भरने की जल्दी है कि भरते चले जाओ। यह आपको हैरानी होगी जान कर कि यूनान में, जब सभ्य था यूनान, अपनी ऊंचाई पर पहुंचा, तो लोग खाने की टेबल पर साथ में एक पक्षी का पंख भी रखते थे। जैसे दांत साफ करने के लिए हम कुछ लकड़ियां रखते हैं, ऐसे वे हर एक टेबल पर खाने वाले के साथ एक पक्षी का पंख रखते थे । वह था—गटको, फिर पंख को करके वोमिट कर दो, फिर और खा लो। नीरो सम्राट दिन में आठ-दस दफे खाना खाता था। दो डाक्टर रख छोड़े थे। वह खाना खाएगा, डाक्टर उसको उलटी करवा देंगे; वह फिर अपनी टेबल पर आकर खाना खाने बैठ जाएगा। भरते जाओ। क्या कारण है ऐसा हमें भरने का ? यह क्या पागलपन है ? मैं घरों में जाता हूं, कभी अमीरों के घर में पहुंच जाता हूं तो वहां समझ में नहीं पड़ता कि वे रहते कहां होंगे ! सब भरा हुआ है। सब भरा हुआ है। निकलने का भी रास्ता नहीं है। कैसे निकल कर बाहर आते हैं, कैसे भीतर जाते हैं, कुछ पता नहीं। मगर यह घर का ही सबूत नहीं है, यह भीतर मन का भी सबूत है। क्योंकि हमारे घर हमारे मन हैं। और हमारा मन हमारा घर है, उसका ही फैलाव है। लाओत्से कहता है, 'खाली होना है भरे जाना । ' तुम अपने को भीतर से खाली करने की सोचो; भरने का काम प्रकृति पर छोड़ दो। वह सदा भर देती है। तुम सिर्फ गड्ढे बनाओ, तुम सिर्फ खाली करो, तुम सिर्फ खाली करो । 'और टूटना, टुकड़े-टुकड़े हो जाना है पुनरुज्जीवन । ' और घबड़ाओ मत कि टूट जाऊंगा। और घबड़ाओ मत कि मिट जाऊंगा । और घबड़ाओ मत कि मर जाऊंगा। क्योंकि मरना नए जीवन की शुरुआत है। जन्म शुरुआत है मृत्यु की और मृत्यु पुनः शुरुआत है जन्म की टूटने से मत घबड़ाओ। टूटने को तैयार रहो। क्योंकि तुम टूट सकोगे तो नए हो जाओगे। नए होने का ढंग एक ही है कि हम बिखरना भी जानें, टूटना भी जानें, समाप्त होना भी जानें। हम पकड़ कर रखना चाहते हैं अपने को, कि कुछ मिटे न, कुछ टूट न जाए। हम जीवन की प्रक्रिया के विपरीत चल रहे हैं। यह जीवन की पूरी प्रक्रिया एक वर्तुल है। एक नदी सागर में गिरती है। सागर में धूप और सूरज की किरणें भाप बनाती हैं। वह भाप फिर आकर पहाड़ पर वर्षा कर जाती है । फिर गंगोत्री में भर जाता है पानी । फिर गंगा बहने लगती है। फिर गंगा जाकर सागर में गिर जाती है। एक वर्तुल है। गंगा अगर सागर में गिरते वक्त कहे कि अगर मैं सागर में गिरूं और बिखरूं तो नष्ट हो जाऊंगी, गंगा अपने को रोक ले, न जाए सागर में गिरने । उस दिन गंगा मर जाएगी। क्योंकि पुनरुज्जीवन का उपाय नहीं रह जाएगा। गंगा को सागर में खोना ही चाहिए। वही उसके नए होने का उपाय है । फिर ताजी हो जाएगी।
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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