SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ताओ की अनुपस्थित उपस्थिति इसलिए लाओत्से कहता है कि ताओ सब कुछ करता है, फिर भी उसे ऐसा करने का कोई दंभ नहीं है। दंभ होता ही उन्हें है, जो जोर-जबर्दस्ती कुछ करते हैं। क्या हमें जीवन में ऐसे किसी कृत्य का पता है, जो हमने बिना दंभ के किया हो? अगर पता हो, तो वैसे कृत्य का नाम ही पुण्य है। यह जरा कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम तो पुण्य भी करते हैं, तो दंभ निर्मित होता है। सच तो यह है कि अगर दंभ निर्मित न करवाया जा सके, तो कोई पुण्य करने को राजी ही नहीं होता है। - अगर मैं आपसे कहूं कि यह मंदिर बनाना है, इसके लिए धन दे दें, तो आप कहते हैं कि मेरी तख्ती कहां लगेगी? और अगर मैं कह कि तख्ती इस मंदिर में लगने वाली ही नहीं है, तो आप पक्का मान लें यह मंदिर बनने वाला नहीं है। क्योंकि लोग मंदिर नहीं बनाते, तख्तियां बनाते हैं। और मंदिरों पर तख्तियां लगाते हैं, ऐसा नहीं; तख्तियों पर मंदिर लगाते हैं। तख्तियां महत्वपूर्ण हैं, मंदिर गौण हैं। क्योंकि बिना मंदिर के तख्ती अच्छी नहीं लगेगी, इसलिए मंदिर के साथ लगाते हैं। लेकिन तख्ती ही आधार है। अगर आपसे कहा जाए कि आप यह जो धन दान कर रहे हैं, इससे आपको प्रशंसा नहीं मिलेगी, तो फिर दान असंभव है। इसलिए शास्त्र समझाते हैं कि जो दान करेगा, उसे कितनी प्रशंसा मिलेगी लोक में, परलोक में कितना पुण्य मिलेगा, कितना फल मिलेगा, कितना सुख, कितना आनंद। यहां एक पैसा दान करो, तो शास्त्र कहते हैं, वहां परलोक में करोड़ गुना उपलब्ध होगा। एक पैसे का दान करवाना हो, तो करोड़ गुना दंभ का आश्वासन देना पड़ता है। लेकिन पुण्य का अर्थ ही कुछ और है। पुण्य का अर्थ है ऐसा कृत्य जिससे दंभ निर्मित न हो। जिससे दंभ निर्मित हो, वही पाप है। इसलिए परमात्मा ने आज तक कोई पाप नहीं किया, हम कह सकते हैं, क्योंकि उसके कोई दंभ की खबर नहीं मिली। उसने अब तक यह भी नहीं कहा कि मैं हूं। इसलिए उसने जो भी किया है, वह पुण्य है। आप भी जो भी करते हैं, वह पुण्य हो जा सकता है, यदि उससे अहंकार निर्मित न होता हो, यदि पीछे ईगो और मैं सघन न होता हो। कृत्य हो जाता हो और मेरे मैं में कुछ जुड़ता न हो, तो कृत्य पुण्य हो जाता है। और मेरे मैं में कुछ जुड़ जाता हो, तो कृत्य पाप हो जाता है। . इसलिए सवाल यह नहीं है कि कौन सा कृत्य पुण्य है और कौन सा कृत्य पाप है। लोग पूछते हैं, कौन सा काम पुण्य है और कौन सा काम पाप है? गलत ही सवाल पूछते हैं। यह सवाल कृत्य का नहीं है, यह सवाल करने वाले का है। पूछना चाहिए कि किस भांति कृत्य तो हो जाए और करने वाला मजबूत न हो? तो पुण्य हो जाता है। और कृत्य न भी किया जाए और करने वाला मजबूत हो जाए, तो पाप हो जाता है। जरूरी नहीं है करना। एक आदमी चोरी नहीं कर रहा है, लेकिन सिर्फ सोच रहा है। एक आदमी हत्या नहीं कर रहा है, सिर्फ सोच रहा है। एक आदमी चुनाव नहीं लड़ रहा है, सिर्फ सोच रहा है। और सोचने में ही अहंकार की सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है। सब्स्टीटयूट हैं, सभी लोग असली सीढ़ियां नहीं चढ़ पाते। असली सीढ़ियां चढ़ने का अपना कष्ट, अपनी पीड़ा, अपनी मुसीबत है। लेकिन सभी लोग सपने तो देख ही सकते हैं। सभी लोग सम्राट नहीं हो पाते, लेकिन सभी लोग सपनों में तो सम्राट हो ही सकते हैं। तो सपने से हम अपने मन को समझा-बझा लेते हैं। लेकिन सपने में भी कभी आपने खयाल किया, आराम-कुर्सी पर बैठ कर अगर सोच रहे हों कि चुनाव जीत गए हैं—न लड़े हैं, न जीते हैं, सिर्फ सोच रहे हों कि जीत गए हैं तो आपने कभी खयाल किया कि भीतर अहंकार चार सीढ़ियां ऊपर चढ़ जाता है। उसे देर नहीं लगती। वह ठीक थर्मामीटर के पारे की तरह आपकी जांच-परख रखता है; कि जहां भी आपने कृत्य में मजा लिया, वहीं तत्काल पारा ऊपर चढ़ जाता है। नहीं किया हो कृत्य, तो भी। ठीक इससे उलटी घटना भी घटती है। किया हो कृत्य, तो भी अगर अस्मिता निर्मित न हो, अहंकार निर्मित न हो, तो पारा नीचे गिरता जाता है।
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy