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________________ ताओ उपनिषद भाग २ 40 ठीक जीवन के उद्देश्य के संबंध में भी वही भ्रांति होती है। जब हम पूछते हैं, जीवन का उद्देश्य क्या ? तब हम यह मान ही लेते हैं कि कोई चीज बिना उद्देश्य के नहीं हो सकती। यह हमारा इंप्लीकेशन है, यह हमने भीतर स्वीकार कर लिया। लेकिन हम भूलते हैं; हम कुछ भी उद्देश्य बताएं, पुनः यह पूछा जा सकता है कि जो हमने बताया, उसका उद्देश्य क्या? जैसे धार्मिक आदमी कहेगा, जीवन का उद्देश्य ईश्वर को पा लेना है। लेकिन क्या यह नहीं पूछा जा सकता कि ईश्वर को पा लेने का उद्देश्य क्या है? पाकर भी क्या करेंगे? पा भी लिया, फिर क्या होगा ? पा लेने के बाद भी ईश्वर को यह प्रश्न तो संगत रूप से पूछा ही जा सकता है कि इस ईश्वर को पा लेने का उद्देश्य क्या ? धार्मिक व्यक्ति कह सकते हैं कि जीवन का लक्ष्य मोक्ष को पा लेना है। लेकिन मोक्ष का लक्ष्य ? तो यह व्यर्थ प्रश्न है। व्यर्थ इसलिए है कि कोई भी उत्तर इसे खंडित नहीं करेगा। कोई भी उत्तर, ध्यान रखें ! ऐसा मत सोचें कि कोई उत्तर तो होगा ही, जो इसे खंडित कर देगा। आपका उत्तर मुझे पता नहीं है, तो भी मैं कहता हूं, कोई भी उत्तर आप खोज लाएं, वह व्यर्थ होगा। क्योंकि यह प्रश्न पुनः सार्थक रूप से पूछा जा सकता है कि आप जो भी खोज लाए हैं एक्स, वाई, जेड, उसका उद्देश्य क्या है ? इस बात को कहने के लिए कि यह प्रश्न व्यर्थ है, आपके उत्तर को जानना मेरे लिए जरूरी नहीं है। यह प्रश्न ही व्यर्थ है, क्योंकि इसका सार्थक रूप से कोई भी उत्तर नहीं दिया जा सकता। क्योंकि हर दिए गए उत्तर के बाद यह पुनः अपना सिर वैसे ही खड़ा कर लेता है। लेकिन जिसको हम बुद्धिमान आदमी कहते हैं, विचारशील आदमी कहते हैं, समझदार कहते हैं, वह निरंतर लोगों को समझाते हुए पाया जाता है कि व्यर्थ मत जीओ जीवन में उद्देश्य लाओ। किसी चीज के लिए जीओ। देश के लिए जीओ, धर्म के लिए जीओ, सेवा के लिए जीओ, सत्य के लिए जीओ, परमात्मा के लिए जीओ। एक भूल भर मत करना, जीवन के लिए भर मत जीना; और सब चीजों के लिए जीना। क्योंकि वैसा आदमी यह मानने को राजी नहीं होगा कि जीवन अपना ही उद्देश्य है, पर्याप्त अपने में ही, उसे बाहर किसी उद्देश्य को खोजने की जरूरत नहीं है। क्योंकि वैसा आदमी कहेगा कि तब तो जीवन व्यर्थ हो गया; क्योंकि इसमें कोई प्रयोजन नहीं, कोई लक्ष्य नहीं। तब तो जीवन एक ऐसा रास्ता हो गया, जिसकी कोई मंजिल नहीं। क्योंकि उस आदमी ने मान ही रखा है कि रास्ते की मंजिल होनी ही चाहिए। यात्रा भी मंजिल हो सकती है, यात्रा ही मंजिल हो सकती है, ऐसा उसकी बुद्धि नहीं पकड़ पाती। और इसलिए वह मंजिल निर्मित करता चला जाता है। लेकिन कोई भी मंजिल मंजिल नहीं हो सकती, क्योंकि हम पुनः पूछ सकते हैं कि यह मंजिल किसलिए? यह मंजिल भी किस मंजिल को पाने के लिए? सोद्देश्य जीवन, प्रयोजन-सहित जीवन मन के लिए प्रीतिकर है, अहंकार के लिए भी। क्योंकि अहंकार अगर बिना उद्देश्य के जीए, तो अपने को भर नहीं सकता। इसलिए जितना बड़ा उद्देश्य होगा, उतना बड़ा अहंकार होगा । अगर आप अपने परिवार के लिए ही जी रहे हैं, तो आपके पास बहुत बड़ा अहंकार नहीं हो सकता । अगर आपको बड़ा अहंकार चाहिए, तो पूरे राष्ट्र के लिए जीएं। तब आपके पास विराट अहंकार होगा। अगर और बड़ा अहंकार चाहिए, तो पूरी मनुष्यता के लिए जीएं। अगर और बड़ा अहंकार चाहिए, तो पूरे ब्रह्मांड का केंद्र आप ही बन जाएं और पूरे ब्रह्मांड के लिए जीएं। तो जितना बड़ा उद्देश्य होगा, उतना बड़ा अहंकार हो सकता है; जितना छोटा उद्देश्य होगा, उतना छोटा अहंकार होगा। इसलिए बहुत मजे की बात है कि जो आदमी धन खोज रहा है, वह कभी उतना बड़ा अहंकारी नहीं हो सकता, जितना वह आदमी अहंकारी हो सकता है, जो ज्ञान खोज रहा है। जो आदमी पद खोज रहा है, वह उतना बड़ा अहंकारी नहीं हो सकता, जितना बड़ा वह हो सकता है, जो सेवा खोज रहा है। जितना बड़ा हो लक्ष्य ! और बड़े लक्ष्य का अर्थ होता है कि जितनी बड़ी परिधि बनाता हो वह लोगों के आस-पास । और बड़े का यह भी अर्थ होता है कि जितना नॉन - काम्पिटीटिव हो, जितनी प्रतियोगिता कम हो ।
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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