SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ताओ उपनिषद भाग २ और लोग उधार वासना से जीते हैं। दूसरे उनको पकड़ा देते हैं। फिर वे उसी के पीछे दौड़ने लगते हैं। और जीवन भर आदमी ऐसा दौड़ता रहता है। इसलिए जब आपकी वासना पूरी होती है, तब आप पाते हैं : यह तो कुछ भी न हुआ, यह तो राख हाथ लग गई। अब मैं क्या करूं? लेकिन सोचने की अभी फर्सत नहीं है। क्योंकि तब तक और लोग कुछ और पकड़ा देते हैं और आप भागे चले जाते हैं। हर आदमी मरते वक्त जानता है कि मैं न मालूम किन-किन के पीछे दौड़ता रहा, न मालूम किन-किन की इच्छाएं मैं पूरी करने की कोशिश करता रहा! मेरी भी कोई अपनी नियति थी? मैं भी कुछ पाने को इस जगत में था? मेरा भी कोई होने का क्रम था? अवसर तो खो गया, समय तो व्यतीत हो गया-कभी कपड़े जुटाने में, कभी मकान बनाने में, कभी नाम-यश कमाने में। लेकिन मेरी नियति क्या थी? मैं क्या पाने को था? लाओत्से कहता है, नियति तो उसी दिन उपलब्ध होती है, जिस दिन कोई इस शाश्वत नियम को, इस आकाश को अपने भीतर पा लेता है। 'स्वयं की नियति को पुनः उपलब्ध हो जाना शाश्वत नियम को पा लेना है। शाश्वत नियम को जानना ही ज्ञान से आलोकित होना है। और शाश्वत नियम का अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का जनक है।' यह बादलों के पीछे जो भागने से विपत्तियां पैदा हो रही हैं; यह जो इतना दुख आदमी उठाता है उन सुखों को पाने के लिए, जिनको पाने पर कोई सुख नहीं मिलता; इतना जो दुख उठाता है उन मंजिलों पर पहुंचने के लिए, जहां पहुंच कर सिवाय थकान के कुछ हाथ नहीं लगता; और हर मंजिल एक पड़ाव सिद्ध होती है फिर किसी नई मंजिल की खोज के लिए; यह इतना दुख, लाओत्से कहता है, उस शाश्वत नियम को न जानने का परिणाम है। काश, हम जान सकें कि हमारे भीतर कोई एक ऐसा तत्व भी है, अपरिवर्तनीय, अमृत, सदा; और हम उसके साथ अपना संबंध जोड़ लें, एक हो जाएं। फिर कितने ही बादल घिरें, और कितनी ही आंधियां उठें, फिर कोई अंतर न पड़ेगा, फिर कोई अंतर न पड़ेगा। फिर जरा सा कंपन भी भीतर पैदा न होगा। बादल आएंगे और चले जाएंगे, तूफान उठेंगे और बिखर जाएंगे, और भीतर सघन शांति बनी रहेगी। __इस सघन शांति के सूत्र को पाने के लिए तीन बातें आखिरी मैं आपसे कहूं। एक, सदा अपने भीतर और अपने बाहर भी, क्या परिवर्तित हो रहा है, वह, और क्या परिवर्तित नहीं होता, इसमें विवेक को, डिस्क्रिमिनेशन को बनाए रखें। निरंतर यह खयाल रखें कि महत्वपूर्ण वही है, जो बदलता नहीं है। जो बदल जाता है, वह महत्वपूर्ण नहीं है, वह गैर-महत्वपूर्ण है। अपने भीतर भी जो बदल जाता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। जो नहीं बदलता, वही मूल्यवान है। उठते, बैठते, चलते, उसका ही स्मरण रखें। रास्ते पर चल रहे हैं, तो ध्यान रखें भीतर उसका जो नहीं चलता। जो चल रहा है, वह ठीक है। भोजन कर रहे हैं, ध्यान रखें उसका जो भोजन नहीं करता और जिसे भूख भी नहीं लगती। ठीक है, शरीर को भोजन देना है, उसे देते रहें। रात बिस्तर पर गए हैं सोने को, जानें कि शरीर थक गया है और सोने जा रहा है, लेकिन वह भी है भीतर जो कभी नहीं सोता। हर क्रिया में उसका स्मरण रखें, जो साक्षी है, जो देख रहा है। भूख लगती है, तो हम तत्काल कहते हैं, मुझे भूख लगी। लेकिन भला बाहर ऐसा कहना पड़े, भीतर ऐसा स्मरण रखें कि मुझे पता चल रहा है कि शरीर को भूख लगी, मुझे पता चल रहा है कि पेट को भूख लगी। अपने को द्रष्टा से ज्यादा नहीं, कर्ता कभी न मानें। क्योंकि जैसे ही कर्ता माना, कर्म से संबंध जुड़ गया। जब आपको भूख लगेगी, तो फिर आपको ही भोजन भी करना पड़ेगा। जब आप जानेंगे कि शरीर को भूख लगी, तो आप भोजन में भी जानेंगे कि शरीर ने ही भोजन किया। 274
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy