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________________ ताओ की साधना-योग के संदर्भ में 127 थी। वह था क्षत्रिय, पक्का पुरुष । और लाओत्से की सारी शिक्षा है स्त्रैण चित्त के लिए। हम मान सकते हैं कि अर्जुन प्रतीक पुरुष है। जैसा पुरुष होना चाहिए, वैसा पुरुष है । इसलिए कृष्ण तक उसको जोश चढ़ाने के लिए कहते हैं कि क्या तू नपुंसकों जैसी बात कर रहा है ! वह पुरुष को पूरा कंपाने के लिए। कि क्या लोग तुझे कायर कहेंगे ! पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां लोग तुझे कहेंगे कि तू कायर था, नपुंसक था, क्लीव था! ये सब चोटें उसके पुरुष के लिए हैं। कि उसका पुरुष खड़ा हो जाए और वह कहे, क्या बात करते हो ? वह अपना गांडीव उठा ले और युद्ध पर उतर जाए ! लाओत्से की सारी शिक्षा स्त्रैण चित्त के लिए है। तो इस शिक्षा का जो शिष्य है, वह बुनियादी रूप से अलग है। पर बात वही है—चाहे कोई अपने अहंकार को परमात्मा के लिए विसर्जित कर दे, कर्म करता रहे और कर्ता न रह जाए; या लाओत्से कहता है, अक्रिया को समझ ले कि सब क्रियाएं हो रही हैं, मैं करने वाला हूं ही नहीं। तो लाओत्से यह भी नहीं कहता कि कर्म करता रहे। यह भी क्या कहना ? कर्म होता रहे, होता हो तो होता रहे, न होता हो तो न हो, रुकता हो तो रुक जाए, चलता हो तो चलता रहे। मैं कोई हूं ही नहीं बीच में पड़ने वाला। लेकिन इससे यह मतलब नहीं है कि लाओत्से को मानने वाले कर्म से भाग ही जाएंगे। और इसका यह भी मतलब नहीं है कि कृष्ण को मानने वाले कर्म में लगेंगे ही। हम दोनों को जानते हैं भलीभांति । लाओत्से को मानने वाले भी कर्म पर गए हैं, युद्ध पर गए हैं। अब यह उनेजी है, यह धनुर्विद्या का पारंगत है, कुशलतम व्यक्ति है। और हम हिंदुस्तान में संन्यासियों को भी जानते हैं, जो गीता बगल में दबाए हुए संसार को छोड़ कर भाग रहे हैं। और वे कहते हैं कि गीता प्राण है उनका । आप क्या करोगे, यह न तो कृष्ण के हाथ में है और न लाओत्से के । यह सदा आपके हाथ में है, सदा आपके हाथ में है। असल में, शिक्षक कुछ भी नहीं कर सकते, जब तक आपका सहयोग न हो। और शिक्षक भी उतना ही कर सकते हैं, जितने दूर आप चलने को राजी हैं। दोनों की बातें एक हैं, बहुत अलग बिंदुओं से कही गईं। एक पुरुष के चित्त की बात है; एक स्त्रैण चित्त की बात है। एक मित्र का फिर करीब ऐसा ही प्रश्न हैं कि आपके प्रवचन से लगता हूँ कि लाओत्से अयात्रा की महिमा बताता था, फिर भी उसने साधना के सूत्र बताए हैं: नाभि केंद्र, श्वास की प्रक्रिया, इत्यादि । क्या इन दोनों में विरोध नहीं मालूम पड़ता है? विरोध मालूम पड़ता है। क्योंकि जब भी हम कहें साधना, तो लगता है कुछ करना पड़ेगा। यह हमारी भाषा की भूल है । असल में, भाषा में अक्रिया के लिए कोई शब्द नहीं है। अक्रिया के लिए कोई शब्द नहीं है । सब शब्द क्रियाओं के हैं। अगर हम एक आदमी को कहते हैं कि अच्छा, अब सो जाओ, तो मतलब होता है कि अब सोना पड़ेगा, सोने के लिए कुछ करना पड़ेगा। सोना एक क्रिया है। लेकिन हम सब जानते हैं कि सोना क्रिया नहीं है । और कोई भी कोशिश करके सो नहीं सकता है। या किसी दिन कोशिश करके देखें ! जितनी कोशिश करेंगे, उतनी ही नींद मुश्किल हो जाती है। तो सोना क्रिया तो नहीं है, लेकिन भाषा में क्रिया है। सोने का मतलब भी वैसे ही होता है कि एक काम है; जैसे चलना, उठना, खाना, पीना, ऐसे ही सोना। लेकिन कोई आदमी क्रिया करके सो नहीं सकता। सोना होता ही तब घटित है, जब सब क्रिया बंद हो जाती है । इसलिए जिनको नींद नहीं आती, उनकी सबसे बड़ी मुसीबत यही है कि कैसे सोएं, वे पूछते हैं कि कैसे सोएं ? और कैसे जो है वह सोने का दुश्मन है। कैसे का मतलब है, व्हाट टु डू? क्या करें ? और करना जो है वह नींद का
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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