SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अईमुत्ता मुनि ___ राजगृही नगरी में गौतम स्वामी गोचरी के लिए निकले हैं।खेलते हुए बालक अईमत्ता ने मुनि को देखा और बाल भाव से मुनि को पूछा कि ऐसी तेज दुपहरी में नंगे पाँव क्यों घूम रहे हो? गौतम स्वामी राजकुमार अईमुत्ता को समझाते हैं, हम शुद्ध, दूषण बिना की भिक्षा घर घर से लेते हैं। हमारे आचार अनुसार, पाँव में जूते पहिनते नहीं है तथा गाड़ी वगैरह में बैठकर कहीं भी आते जाते नहीं है। ___यह सुनकर अईमुत्ता ने अपने महल में भिक्षा हेतु पधारने के लिए मुनि को प्रार्थना की। गौतम स्वामी बालक की भावना देखकर बालक के महल में गये। बालक की माताने गुरु को, वंदना करके भावपूर्वक मोदक की भिक्षा अर्पण की और अईमुत्ता को समझाया, हम बड़े भाग्यशाली है कि श्री महावीर प्रभु के प्रथम गणधर गौतम स्वामी स्वयं पधारे हैं। भिक्षा लेकर गौतम स्वामी महल से बाहर निकले तब अईमुत्ता उन्हें विदा करने के लिये साथ चला और बालभाव से गुरुजी को कहा : 'लाइये, यह, भोजन का भार अधिक है, मैं लेलूँ।' श्री गौतम स्वामी बोले, 'नहीं... नहीं...। यह अन्य किसीको नहीं दिया जा सकता, यह तो हमारे जैसे चारित्रपालक साधु ही उठा सकते हैं।' यह सुनकर अईमुत्ता ने साधु बनने की हठ ली। गौतम स्वामी ने कहा, 'हम तुम्हारे माँ-बाप की आज्ञा बगैर तुम्हें साधु नहीं बना सकते।' अईमुत्ता ने घर जाकर माता को समझाया। साधु बनने पर क्या क्या करना पड़ेगा, माताने समझाया। अईमुत्ता ने सब कुछ सहन करूंगा - यों कहकर माता को समझाकर युक्तिपूर्वक आज्ञा प्राप्त की और गौतम स्वामी के साथ समवसरण पधारकर प्रभु महावीर से दीक्षा प्राप्त की। गौतम स्वामी ने अईमुत्ता मुनि को एक वृद्ध साधु को सौंपा ।वृद्ध मुनि स्थंडिल के लिए वन में पधार रहे थे। उनके साथ अईमुत्ता गये।मार्ग में एक छोटा सा सरोवर था।वहाँ अईमुत्ताजी ने सहज बालभाव से पत्ते की नाव बनाकर तैरायी। यह देखकर वृद्ध मुनि ने अईमुत्ता को समझाया, हम मुनिगण ऐसा अधर्म नहीं कर सकते । पानी के अंदर ऐसे खेल करेंगे तो छ:काय जीव की विराधना होगी और उसके फलस्वरूप हमारा जीव दुर्गति प्राप्त करेगा। बालमुनि अईमुत्ता बड़े लजित हुए। बड़ा पछतावा हुआ। समवसरण पधारकर इरियावही, पडिक्कमर्ता शुक्ल ध्यान लगा दिया ! शुद्ध भाव से किये पाप का पछतावा करते करते केवल ज्ञान प्राप्त किया। जिन शासन के चमकते हीरे . ६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy