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________________ भक्ति को आत्मोन्नति में प्रथम साधन स्वरूप बतलाया गया है। वह उपासनादि उनके नाम-स्मरण, गुणोत्कीर्तन, दर्शन, वन्दन, पूजन एवं आज्ञापालन इत्यादिक से की जा सकती है । प्राकृतिक नियम के अनुसार विश्व के प्राणियों का विशेष-अधिक झुकाव मूत्ति-प्रतिमा-प्रतिबिम्ब की ओर देखा जाता है। क्योंकि मूल वस्तु-पदार्थ को पहचानने और स्मरण करने में प्रत्येक प्राणी को मूत्ति या चित्र की आवश्यकता रहती है। ऐसा माने बिना किसी का भी व्यवहार विश्व में नहीं चल सकता। जीवों के कल्याण और मूर्तिपूजा इन दोनों का परस्पर प्रति घनिष्ट सम्बन्ध है। ऐसे वीतरागीदेवों की तथा त्यागी परमपुरुषों-दिव्यपुरुषों-महापुरुषों की मूर्तियों के आलम्बन से ही संसारी जीवों की अनादिकालीन पापवासनाएँ मंद होती हैं, विषय और कषाय का तीव्र वेग कम होता है, संसार के प्रारम्भ-समारम्भ और परिग्रह के त्याग की भावना का जन्म-उत्थान होता है । इतना ही नहीं, किन्तु सन्मार्ग की ओर अग्रसरता-मुख्यता स्थायी हो जाती है; तथा अहर्निश सुन्दर उच्च गुणों का आदर्श मिलता ही रहता है। आत्मा में अनन्त गुण हैं, किन्तु उन गुणों में मुख्य मूत्ति को सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-४
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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