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________________ धर्मात्माओं को भवसिन्धु पार करने के लिये स्टीमर-नौकाजहाज के समान प्रशस्ततम ये दो आलम्बन ही अत्युत्तम हैं। इस सम्बन्ध में पंडित श्री वीरविजयजी महाराज कृत चौंसठ प्रकारी पूजा के अन्तर्गत अन्तरायकर्म-निवारण की सातवीं पूजा में कहा है कि अरूपी परण रूपारोपण से, ठवरणा अनुयोगद्वारा ॥ जिणंदा ॥ विषमकाल जिनबिम्ब जिनागम, भवियरणकं प्राधारा ॥ जिणंदा ॥५॥ आत्मा निमित्तवासी है। जगत् में उसके उन्नत और अवनत होने में निमित्त कारण की ही मुख्यता है । इसलिये प्रत्येक प्रात्मा का यह कर्त्तव्य है कि यदि वह अपनी उन्नति करना चाहे तो उसको अच्छे निमित्तों में रहना चाहिये और अच्छे प्रशस्त पालम्बन ग्रहण करने चाहिये। विश्व में प्रायः प्रत्येक धर्म में प्रभु-परमेश्वर के दर्शन, वन्दन और पूजन को प्रात्मा के उन्नत होने में सर्वोत्कृष्ट निमित्त-मालम्बन माना गया है। जगत् में सुप्रसिद्ध ऐसे जैनधर्म में भी श्री जिनेश्वरदेव की अनुपम उपासना-सेवा ___ मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-३
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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