SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा मत बोलो कि अपनो को अपनो से | 97. जिनशासन, सिद्धान्तो की नींव पर टिका अलग करें। ऐसा मत खाओ कि हम अपनो पर भार | 98. उल्टे को सुल्टा (सीधा)लेना चारित्र धर्म बन जाएं। की विशेषता है। 86. तीन पद्धतियों में तेजी से परिवर्तन हुआ है । 99. मजा जीभ लेती है, कष्ट शरीर उठाता है। - भोजन भजन, भोग। रात्रि में नींद नहीं, | 100. विपुल गिरि से 16 साधु, शत्रुन्जय से 40 दिन में चैन नहीं। साधु, उपाश्रय से 33 साध्वियाँ, गजसुकुमाल 86. साधन पर टिका सुख क्षणिक होता है, श्मशान से मोक्ष गए। अर्जुन मोक्ष गए। समझ पर टिका सुख स्थायी होता है। 101. वैराग्य भावना की लहरों को त्याग से टिकाया 87. द्वेष की पहिचान का प्रथम सूत्र तिरस्कार जाता है (संयम से) काली आदि 10 रानियों को पुत्र-मृत्यु के समाचारो से वैराग्य आया 88. व्यवहार धर्म निभाना, गृहस्थी के लिए था। आवश्यक है। 102. अल्प संयम पर्याय, अल्प श्रुतज्ञान, परन्तु 89. क्रोध से प्रीति का एवम् द्वेष से गुणों का महावेदना में चारित्र धर्म नहीं छोड़ा - नाश होता है। गजसुकुमार मुनि। 90. कर्म सदा 'कर्ता' का पीछा करता है। 103. अल्प संयम पर्याय, अल्प श्रुतज्ञान, परन्तु वेदना में चारित्र धर्म छोड़ा - मेघ मुनि । 91. प्रीति और मैत्री एक ही सिक्के के दो पहलु बदला चुकाना अच्छा। बदला लेना बरा। 104. जिसके प्रति द्वेष उसे हम दुःख देना चाहते 92. मारणांतिक परिसह मे समभाव रखने के है, जिसके प्रति राग, उसे सुख देना चाहते उत्कृष्ट उदाहरण है - गजसुकुमार मुनि। 93. वचन के दुरुपयोग से मित्र शत्रु बनता है 105. दुर्जन की संगत से, सज्जन प्रायः दुर्जन तथा वचन के सदुपयोग से शत्रु मित्र बन बन जाता है तथा सज्जन की संगत से जाता है। दुर्जन भी सज्जन बन सकता है। 94. द्रव्य, क्षेत्र, काल की सीमा रेखा शाश्वत 106. यादव कुल में से 33 साधु, 10 साध्वियाँ वादियो पर लागू नहीं होती। 95. तप मात्र निर्जरा के लिए होता है, न 107. श्रेणिक राजा की 23 रानियों ने दीक्षा ली। पद, न प्रशंसा और न मान सम्मान के 108. अशांति और शान्ति का उपादान (भीतरी कारण) स्वयं ही है। . 96. वर्तमान में जीवन मूल्यों में नकारात्मक परिवर्तन आने से धन का महत्व अधिक 109. साधा हुआ मन, दूसरों को अवश्य प्रभावित बढ़ा है। करता है। हुई। लिए।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy