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________________ 300. प्रमाद मत करो से चक्खुबले य हायइ, समयं गोयम ! मा पमायए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2571] ... - उत्तराध्ययन - 10/22 चक्षुरिन्द्रिय का समूचा बल क्षीण होता जा रहा है । अतएव हे गौतम ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद उचित नहीं है। 301. प्रमाद-वर्जन से सोयबले य हायई, समयं गोयम मा पमायए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2571] - उत्तराध्ययन 10/21 कर्णेन्द्रिय का सारा बल क्षीण होता जा रहा है। अतएव हे गौतम ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद उचित नहीं है । 302. निर्लिप्त बनो वोच्छिद सिणेहमप्पणो, कुमुयं सार इयं व पाणियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2572] . - उत्तराध्ययन 10/28 जैसे शरदऋतु का कुमुद जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही तुम • अपने स्नेह का विच्छेद कर निर्लिप्त बनो । 303. भोग, पुन: न चाटो मावंतं पुणो विआविए । - श्री अभियान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2572] - उत्तराध्ययन 16/29 त्याग की हुई भोग्य वस्तुओं को पुन: भोगने की इच्छा मत करो अर्थात् वमन को मत चाटो। . टा - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 133
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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