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________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2433] - उत्तराध्ययननियुक्ति 140 दुर्जन दूसरों के राई और सरसव जितने दोष भी देखता रहता है, किन्तु अपने बिल जितने बड़े दोषों को देखता हुआ भी अनदेखा कर देता 255. सम्यग्दर्शन से लाभ दसणसम्पन्नयाएणं जीवे भवमिच्छत्तछेयणं करेइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2435] - उत्तराध्ययन - 29/62 सम्यग्दर्शन की सम्पन्नता से आत्मा संसार के हेतुभूत मिथ्यात्व का उन्मूलन कर देती है। 256. दर्शन-अष्टाचार निस्संकिय निक्कंखिय-निवित्तिगिच्छा अमूढ दिट्टीय । उववूह थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ ॥ ____ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2436 ] - उत्तराध्ययन - 28/RI (१) सर्वज्ञ भगवान् की वाणी में सन्देह नहीं करना (२) असत्यमतों का चमत्कार देखकर उनकी अभिलाषा नहीं करना (३) धर्म-फल की प्राप्ति के विषय में शंका नहीं करना (४) अनेक मतमतान्तरों के विचार सुनकर दिग्मूढ न बनना अर्थात् अपनी सच्ची श्रद्धा से न ङिाना (५) गुणीजनों के गुणों की प्रशंसा करना और गुणी बनने का प्रयत्न करना (६) धर्म से विचलित होते हुए प्राणी को समझाकर पुन: धर्म में स्थिर करना । (७) वीतराग भाषित धर्म का हित करना, स्वधर्मी बन्धुओं के साथ धार्मिक प्रेम रखना और उन्हें धार्मिक सहायता देना । (८) तथा सद्धर्म की प्रभावना करना - ये आठ सम्यगदृष्टि जीवों के आचरण करने योग्य कार्य हैं अर्थात् सम्यक्त्व के ये आठ आचार हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 .. 122
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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