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________________ - संबोधसत्तरि16 अनेक भवों के सञ्चित किए हुए अष्टविध कर्म-रज तप और संयम के द्वारा दूर होते हैं, इसलिए उसे 'भावतीर्थ' कहते हैं। 228. सुखी कौन ? सुखिनो विषयैस्तृप्ता, नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यहो । भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरंजन ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2242] - ज्ञानसार 108 यह आश्चर्य है कि विषय-सुखों से अतृप्त, देवराज इन्द्र और उपेन्द्र भी सुखी नहीं है, किन्तु जगत् में ज्ञान से तृप्त निरंजन एक मुनि ही सुखी है। 229. शुभाशुभ डकार विषयोर्मिविषोद्गार: स्यादतृप्तस्य पुद्गलैः । ज्ञानतृप्तस्य तु ध्यानसुधोद्गारपरम्परा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2242] - ज्ञानसार 100 जो पुद्गलों से तृप्त नहीं हैं, उन्हें विषय-तरंगरूपी जहर की डकारें आती हैं, उसीतरह जो ज्ञान से तृप्त हैं, उन्हें ध्यानरूपी अमृत की डकारों की परम्परा चलती रहती हैं। 230. विरागी-निर्बन्ध अकुव्वतो णवं णत्थि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2246] - सूत्रकृतांग - 145M. ___जो अन्दर में राग-द्वेष रूप-भावकर्म नहीं करता, उसे नए कर्म का बँध नहीं होता। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 115
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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