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________________ 224. सम्यग्दृष्टि को वास्तविक तृप्ति संसारे स्वप्जन्मिथ्या तृप्तिः स्यादाभिमानिकी । तथ्या तु भ्रान्तिशून्यस्य साऽऽत्मवीर्यविपाककृत् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2242] - ज्ञानसार 10/A जैसे स्वप्न में मोदक खाने या देखने से वास्तविक तृप्ति नहीं होती, वैसे ही संसार में विषयों (अभिमान) से मान ली जानेवाली झूठी तृप्ति होती है। वास्तविक तृप्ति तो मिथ्याज्ञान रहित सम्यग्दृष्टि को होती है और वह आत्मवीर्य की पुष्टि-वृद्धि करनेवाली होती है। 225. द्रव्यतीर्थ दाहोवसमं तण्हाइ, छेयणं मलप्पवाहणं चेव । तिहिं अत्थेहिं निउत्तं, तम्हा तं दव्वओ तित्थं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2242] - संबोधसत्तरि 14 दाह को शान्त करना, तृष्णा का छेदन करना और कर्म-मल को दूर करना-इन तीनों अर्थों से युक्त होने से उसे 'द्रव्यतीर्थ' कहते हैं । 226. धर्म ही तीर्थ कोहंमि उ निग्गहिए, दाहस्स उवसमणं हवइ तित्थं । लोहंमि उ निग्गहिए, तण्हाए छेयणं होई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2242] - संबोधसत्तरि - 115 क्रोध का निग्रह करने से मानसिक जलन शान्त होती है, लोभ का निग्रह करने से तृष्णा शान्त हो जाती है, इसलिए धर्म ही सच्चा तीर्थ है । 227. भावतीर्थ अट्ठविहं कम्मरयं, बहुएहिं भवेहिं संचियं जम्हा । तवसंजमेण धोवइ, तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2242] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 114 3 - - -
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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