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________________ 84. अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं। गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्ज।। सदैव णिच्वं शाश्वत अगुरुगलघुगेहिं (अगुरुगलघुग) 3/2 वि अगुरुलघुगुणों से युक्त सया अव्यय तेहिं (त) 3/2 सवि उन अणंतेहिं (अणंत) 3/2 वि अनन्त परिणदं (परिणद) भूकृ 1/1 अनि रूपान्तरित/परिवर्तित (णिच्च) 1/1 वि गदिकिरियाजुत्ताणं [(गदि)-(किरिया)(जुत्त) भूकृ 4/2 अनि] गमन क्रिया से युक्त (जीव और पुद्गलों) के लिए कारणभूदं [(कारण)-(भूद) कारण हुआ भूकृ 1/1 अनि] सयमकज्ज [(सयं)+(अकज्ज)] सयं (अ) = स्वयं स्वयं अकज्ज (अकज्ज) 1/1 वि किसी कारण का परिणाम नहीं (किसी से उत्पन्न नहीं) अन्वय- तेहिं अणंते हिं अगुरुगलघुगेहिं सया परिणदं णिच्वं गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्ज। अर्थ- (धर्म द्रव्य) उन अनन्त अगुरुलघुगुणों से युक्त सदैव रूपान्तरित/ परिवर्तित (होता है), (वह) शाश्वत (है), गमन क्रिया से युक्त (जीव और पुद्गलों) के लिए कारण हुआ (है) (किन्तु) स्वयं किसी कारण का परिणाम नहीं (है) अर्थात् किसी से उत्पन्न नहीं है। (94) पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
SR No.002306
Book TitlePanchastikay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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