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________________ समाधिमरण या सल्लेखना दीर्घ आयु होने पर भी व धर्म सेवन करते बनने पर भी आहारादि का त्याग करनेवाला आत्मघाती होता है। भगवान की ऐसी आज्ञा है कि धर्म संयुक्त शरीर की बड़े यत्न से रक्षा करना चाहिये। यदि धर्म सेवन की सहकारी इस देह को आहार त्याग करके छोड़ देगा तो क्या नारकी-तिर्यंचों की संयम रहित देह से व्रत-तप-संयम सधेगा? रत्नत्रय की साधक तो यह मनुष्य देह ही है। जो धर्म की साधक मनुष्य देह को आहारादि त्यागकर छोड़ देता है; उसका क्या कार्य सिद्ध होता है? इस देह को त्यागने से हमारा क्या प्रयोजन सधेगा? व्रत-धर्म रहित और दूसरा नया शरीर धारण कर लेगा। अनन्तानन्त देह धारण करवाने का बीज तो कर्ममय कार्मण देह है, उसको मिथ्यात्व, असंयम, कषायादि का त्याग करके नष्ट करो। - आहारादि का त्याग करने से तो औदारिक हाड़-मांसमय शरीर मरेगा, जो तुरन्त नया दूसरा प्राप्त हो जायेगा । जब अष्ट कर्ममय कार्मण देह मरेगा तब जन्ममरण से छूटोगे । अतः कर्ममय देह को मारने के लिये इस मनुष्य शरीर द्वारा त्याग-व्रत-संयम में दृढ़ता धारण करके आत्मा का कल्याण करो। - जब धर्म सधता नहीं दिखाई दे तब ममत्व छोड़कर अवश्य ही विनाशीक देह को त्याग देने में ममता नहीं करना।" उक्त कथन में पंडित सदासुखदासजी अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में आदेश दे रहे हैं कि जब तक इस देह में रहते हुये धर्मसाधन होता है, शरीर स्वस्थ है; तबतक किसी भी स्थिति में आहारादि का त्याग करके सल्लेखना लेना उचित नहीं है, अपितु आत्मघात ही है। आहारादि का त्याग करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये। १. रत्नकरण्डश्रावकाचार पृष्ठ ४४८ से ४५०
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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