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________________ समाधिमरण या सल्लेखना २९ न हमें यह भव बिगाड़ना है और न इसे संभालना है। जिसमें हमें कोई रस नहीं है; उसे क्या बनाना और क्या बिगाड़ना ? भव तो भव है, उसमें क्या बनना और क्या बिगड़ना ? भव में अच्छे-बुरे का भेद करना उचित नहीं है; क्योंकि जब कोई भव अच्छा है ही नहीं तो उसमें अच्छे-बुरे के भेद में उलझने में समय और शक्ति का व्यर्थ अपव्यय करना समझदारी नहीं है । जब मैंने समताभाव ही धारण कर लिया, समाधि ही ले ली; तब अब भव में अच्छे-बुरे का भेद करने से क्या लाभ है ? अरे, भाई! जब हम भव से मुक्त होने के लिये ही निकले हैं, तब भव में चुनाव करने में क्यों उलझेंगे? हमने तो स्वयं को चुन लिया; अतः पर में से कुछ चुनने का क्या सवाल है ? बहुत लोग कहते हैं कि हम तो अपने गुरुदेव के साथ ही मोक्ष जायेंगे । अरे, भाई ! साथ की भावना मोक्ष का मार्ग नहीं है; मोक्ष का मार्ग तो एकत्व (अकेलेपन) की भावना है, अन्यत्व (पर से भिन्नत्व) की भावना है । यदि गुरुदेव स्वयं के पुण्य के प्रभाव से सागरों लम्बी आयुवाले देव हो गये तो क्या तुम भी उनके साथ मोक्ष जाने की भावना से सागरों पर्यन्त संसार में रहने को तैयार हो ? हम तो इतना लम्बा इन्तजार करने के लिये तैयार नहीं हैं। इसका अर्थ तो यह हुआ कि आप ऊँचे से ऊँचे स्वर्ग में भी जाने को तैयार नहीं है? यह बात तो अत्यन्त स्पष्ट है कि हम सागरों पर्यन्त संसार में रहने को तैयार नहीं हैं, रहने की भावना वाले नहीं हैं ।
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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