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________________ समाधिमरण या सल्लेखना बहुत कष्ट होने पर कभी-कभी शीघ्र मर जाने का भाव होता है। बहुत से लोगों को यह कहते आपने सुना होगा कि बहुत कष्ट हैं। जल्दी मौत आ जाये तो अच्छा है। जगत के सहज परिणमन को सहज ही होने देना श्रेष्ठ है। उसमें कुछ फेरफार तो हम कर ही नहीं सकते, फेरफार करने की भावना भी नहीं रखना चाहिये - यहाँ तो यह कहा जा रहा है। ज्ञानी जीवों का तो जीवन भी समाधिमय होता है मरण भी समाधिमय । वह तो श्रद्धा की अपेक्षा सदा समाधिमय ही होता है। समाधिमरण मरने का व्रत नहीं है। आयु के अन्त में जब सहज भाव से मृत्यु नजदीक हो, अत्यन्त नजदीक हो तो शान्ति से मरण को स्वीकार करना समाधिमरण है। . ध्यान रहे जो अनिवार्य है, उसी को सहज भाव से स्वीकार किया जाता है समाधिमरण में। यह न जीने का व्रत है और न मरने का व्रत है; यह तो सहजभाव से जो हो रहा है, उसे ही सहज भाव से स्वीकार करने का व्रत है। समाधिमरण और सल्लेखना पर लिखने वाले मनीषियों ने आरम्भ में समाधिमरण और सल्लेखना का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त सल्लेखना धारण करनेवालों को या स्वयं के मन को यह समझाने का प्रयास किया है कि मृत्यु से डरो मत । यह मृत्यु तो तुम्हें इस तनरूपी कारागृह (जेल) से छुड़ाने वाली है। यदि मृत्यु न होती तो तुम्हें इस सड़े-गले शरीर से कौन छुड़ाता? पण्डित टोडरमलजी के सुपुत्र गुमानीरामजी वैराग्य रस से ओतप्रोत एवं अध्यात्मरस के रसिया विद्वान् थे। उन्होंने तत्कालीन गद्य में समाधिमरण का स्वरूप लिखा है। वह मूलतः स्वाध्याय करने योग्य है। समाधि के इच्छुक मनुष्यों को उसका स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये । उसमें उन्होंने यह सब लिखा है कि स्वयं को, तथा मातापिता, पत्नी-पुत्र आदि को क्या समझाना चाहिये, कैसे समझाना चाहिये?
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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