SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम के आलोक में - ___ "मरणं प्रकृति शरीरिणाम - प्राणियों का मरना प्रकृति है, प्राकृतिक स्वभाव है।" महाकवि कालिदास की उक्त सूक्ति के अनुसार मरना प्रकृति है। अतः मृत्यु आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों अवश्य होगी, बरसों टलने वाली नहीं है। उक्त संयोगों में एकत्व के कारण, अपनेपन की मिथ्या मान्यता के कारण यह अज्ञानी जगत अनन्त दुखी है और यदि अपनी यह मान्यता भविष्य में भी नहीं सुधारी तो अनन्त काल तक दुखी ही रहेगा। संयोगों का वियोग रोकना तो संभव नहीं है। अतः एकमात्र यही उपाय शेष रहता है कि जगत में जो कुछ भी जिस समय हो रहा है; हम उसके सहज ज्ञाता-दृष्टा रहें। न यह चाहें कि मैं न मरूँ, कभी न मरूँ और न यह चाहे कि मैं शीघ्र ही मर जाऊँ। __अनन्त सुख देने वाली सच्ची मान्यता तो यही है कि यदि मृत्यु का अवसर आ गया है, तो मरने के लिये तैयार और जीवित रहने की सहज अनुकूलता हो तो जीने के लिये तैयार। इसी का नाम समाधिमरण है। समाधिमरण में न जीने की चाह है और न मरने की चाह है। प्रश्न - सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना तो कोई नहीं चाहता। फिर भी आप कहते हैं कि मरने की इच्छा नहीं करना, शीघ्र मरने की इच्छा नहीं करना । मरने की इच्छा क्यों नहीं करना? मरने के लिये ही तो समाधिमरण लिया है। उत्तर - मरने के लिये समाधिमरण नहीं लिया जाता । मरने से तो बचने के उपाय किये जाते हैं। जब जीने का कोई उपाय नहीं बचता, तब समाधिमरण लिया जाता है। जब समाधिमरण ले ही लिया तो फिर जीने की आकांक्षा उचित नहीं है, आकुलता का ही कारण है। इसलिये लिखा है कि जीने की इच्छा भी नहीं रखना।
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy